ईद का असली मकसद शांति और इंसानियत का पैगाम

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चंडीगढ़ +उत्तर प्रदेश : 4 जून : अल्फा न्यूज इंडिया डेस्क :—बीते कल को ईद का चांद नजर आने के बाद आज पूरे देश में ईद का त्योहार मनाया जा रहा है। आईये जानते हैं ईद का महत्व जिसका विश्लेषण कु़छ इस तरह है़ । इस्लामिक कैलेंडर में रमजान का महीना रोज़े का महीना है और उसके बाद का महीना शव्वाल का महीना, जिसके 1 दिन को ईद का दिन ठहराया गया है। ईद का दिन रोज़े के महीने के फौरन बाद आता है। एक महीने के रोज़ेदाराना जिंदगी बिताने के बाद मुसलमान आज़ादी के साथ खाते-पीते हैं। खुदा का शुक्र अदा करते हुए ईद की नमाज़ सामूहिक रूप से पढ़ते हैं। समाज के सभी लोगों से मिलते हैं और खुशी मनाते हैं। दान (फ़ितरा) के जरिए समाज के गरीब वर्ग के लोगों की मदद करते हैं। ईद का भाव खुदा को याद करना है। अपनी खुशियों के साथ लोगों की खुशियों में शामिल होना है।

रोजे का महीना तैयारी और आत्मविश्लेषण का महीना था। उसके बाद ईद का दिन मानो एक नए प्रण और एक नई चेतना के साथ जीवन को शुरू करने का दिन है। रोज़ा अगर ठहराव था तो ईद उस ठहराव के बाद आगे की तरफ बढ़ना है।
रोज़े में व्यक्ति दुनिया की चीजों से थोड़े समय के लिए कट जाता है। यहां तक कि वे अपनी प्राकृतिक जरूरतों पर भी पाबंदी लगता है। यह वास्तव में तैयारी का अंतराल है, जिसका सही उद्देश्य है कि व्यक्ति बाहर देखने के बजाए अपने अंतर्मन की तरफ धयान दे। वह अपने में ऐसे गुण पैदा करे, जो जीवन के संघर्ष के बीच उसके लिए जरूरी हैं, जिनके बिना वह समाज में अपनी भूमिका उपयोगी ढंग से नहीं निभा सकता। जैसे धैर्य रखना, अपनी सीमा का उलंघन न करना, नकरात्मक मानसिकता से स्वयं को बचाना। इसी नकारात्मकता को समाप्त करने का नाम रोज़ा है, जिसका पूरा महीना गुजारकर व्यक्ति दोबारा जीवन के मैदान में वापस आता है और ईद के त्योहार के रूप में वह अपने जीवन के इस नए दौर का शुभारंभ करता है।
ईद का दिन प्रत्येक रोजेदार के लिए नई जिंदगी की शुरुआत का दिन है। रोजे रखने से व्यक्ति के अंदर जो उत्कृष्ट गुण पैदा होते हैं, उसका परिणाम यह होता है कि वह ना सिर्फ अपने लिए बल्कि समाज के लिए भी पहले से बेहतर व्यक्ति बनने के प्रयास में जुट जाता है।
रोजे में व्यक्ति जैसे भूख-प्यास बर्दाश्त करता है, उसी प्रकार से उसे जीवन में घटने वाली अनुकूल परिस्तिथियों को भी बर्दाश्त करना होता है। रोजे में जैसे व्यक्ति अपने सोने और जागने के नित्यकर्म को बदलता है, उसी प्रकार वह व्यापक मानवीय हितों के लिए अपनी इच्छाओं का त्याग करता है। जैसे रोज़े में वह अपनी इच्छाओं को रोकने पर राज़ी होता है, ऐसे ही रमजान के बाद वह समाज में अपने अधिकारों से ज्यादा अपनी ज़िम्मेदारियों पर नज़र रखने वाला बनने का प्रयास करता है।
रोज़ा साल में एक महीने का मामला था तो ईद साल के ग्यारह महीनों का प्रतीक है। रोज़े में वह सब्र, उपासना और अपने ख़ुदा को स्मरण करने में व्यस्त था तो ईद अगले ग्यारह महीने में इन सबको कार्यान्वित करने का नाम है। रोज़ा अगर निजी स्तर पर जीवन की अनुभूति थी तो ईद सामूहिक स्तर पर जीवन में शामिल होना है। रोज़ा अगर स्वयं को ख़ुदा के नूर से जगमगाने का अंतराल था तो ईद मानो दुनिया में इस रौशनी को फैलाने का नाम है। रोज़ा जिस तरह सिर्फ भूख-प्यास नहीं उसी तरह ईद सिर्फ खेल तमाशे का नाम नहीं। दोनों के पीछे प्रत्यक्ष रूप से गहरी सार्थकता छिपी हुई है।
एक हदीस में आता है जब हज़रत मुहम्मद साहब शव्वाल के महीने का चांद देखते तो कहते ‘ए मेरे रब इस चांद को शांति का चांद बना दे।’ हज़रत मुहम्मद साहब का यह कथन ईद के असल भाव को दर्शाता है। ईद का असल मकसद इंसान में आध्यात्मिकता को बढ़ावा देना तो है ही परन्तु इसका बड़ा लक्ष्य एक शांतिमय समाज की स्थापना की तरफ अग्रसर होना है।

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