ये किस बाज़ार में आ गए हम’:-रामकुमार तुसीर

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चंडीगढ़: 11 अगस्त: आरके विक्रमा शर्मा/ अनिल शारदा प्रस्तुति:—-‘जिदगी के इस मेले के किस बाज़ार में पहुंच गए हम जहां हम दस कदम चले तो ईमानदारी, इंसानियत, परस्पर सहानुभूति जैसे खिसकने लगे हैं। ठीक वैसे ही जैसे किसी भीड़ में कुछ प्रतिकूल, कुछ अवांछित होने की सूचना या आभास से लोग जगह छोड़ने लगते हैं। चकाचौंध तो है लेकिन कितने लोगों के लिए? यूं तो देश के कई लोग चन्द्र ग्रह पर आशियाना भी बुक करने लगे हैं लेकिन बहुत बड़ी संख्या में लोगों को जमीं पर झोंपड़ी भी नसीब नहीं। आर्थिक असामनता की इस खाई को पाटने को योजनाएं तो हैं लेकिन इनका कपटपूर्ण क्रियान्वयन केवल सम्पन्नों को ही आगे बढ़ाने में लगा है। यूं तो डिजिटल भी हो रहा है भारत। नेशनल हाइवेज का जाल तनिक भ्रम तो हमारे भीतर जरूर पैदा करता है लेकिन इन सिंगापुरी सड़कों से निकल कर जब खुद में पहुंचते हैं तो चादर छोटी पड़ती दिखाई देती है। बेशक तरक्की है। गाड़ियां, बंगले बढ़े हैं। लेकिन सुकून कहां है? सुरक्षा की बेफिक्री कहां है? चारों औऱ आपाधापी का माहौल है। शिकार की तरह लुट रहा है सरकारी बजट। कमाल है। रेल की एक कई करोड़ की परियोजना आज भी मौके पर अधूरी है। अधिकारी कहते पूरी हो चुकी। भुगतान बहुत पहले हो गया। गजब तो यह है कि कोई अधिकारी उसकी सही लागत बताने को तैयार नहीं। बताते हैं तो उनके अलग अलग आंकड़े हैं। जैसे कोई उचन्ति काम था। हो गया तो पर्चा फाड़ दिया। 32 साल पहले बनी एक ग्रामीण परियोजना पर 8 करोड़ से ज्यादा सरकारी बजट लुट चुका। लक्ष्य की दिशा में एक कदम नहीं चली। इलाके में किसी के कुछ काम नहीं आई। जिन्होंने जमीन दी उनके भी नहीं।अब कई साल से एक निजी कम्पनी का धंधा बनी है। करोड़ों का सरकारी गेहूं सड़ा दिया। सरकारी एजेंसी के एक गोदाम का प्रबन्धक तो तनाव में है। उससे पहले वाला, जिसने घोटाला किया, उसे तरक्की देकर कहीं और लगा दिया। खुली चर्चाएं हैं उसकी ऊपर तक पैठ है। क्या करेंगे आप औऱ हम। जांच भी उन्ही के हाथ मे है जो संलिप्त बताए जा रहे हैं। यह किसी पार्टी या सरकार का ही दोष नहीं। सबकी मिलीजुली मानसिकता है और इसमें हम सब भी किसी न किसी हद तक जिम्मेदार हैं। अब तो अजीब सूचनाओं का दौर भी है। दक्षिण अफ्रीका से सरकार चीते खरीदकर लाएगी। मकसद? नई शिक्षा नीति में सरकार कुछ और भी घड़ने की राह पर है। मोबाइल से तो परिजन भी परेशान हैं, अब दसवीं के विद्यार्थियों को टेबलेट देगी सरकार। बहुत चतुर हैं शासक। कुछ खरीदेंगे तभी तो कुछ बनेगा ना। उधर दल कोई भी हो, जिसे भी देखो खुद के जुगाड़ में ही लगा है। प्रशासन, विशेषकर हरियाणा में, जैसे केवल औपचारिकताओं के लिए ही रह गया है। किसान आंदोलन के बाद से तो बहुत कुछ जैसे प्रभावहीन सा हो गया है। होगा भी क्यों नहीं जब शासक इलाके में जाने की हिम्मत ही ना जुटा पाए, भले ही चाहे कुछ समय के लिए, तो क्या होगा,? कुछ राजनीतिक ‘करतूतों’ के कारण लोगों का नेताओं से मोह भंग है। सरकारी अनेक कार्यक्रमों में जब लोग नहीं दिखते तब इज्जत बचाने को स्कूली बच्चों का ही सहारा लिया जा रहा है। जूए व सट्टे पर अंकुश का कानून भी अब अनावश्यक सा लगने लगा है क्योंकि जिंदगी में सब कुछ नहीं तो ज्यादातर सट्टे जैसा ही तो हो गया है। चुनाव में दाव, भारी खर्च। जीते तो पौबारह, सो गुना, हारे तो मारे गए। हुआ ना सट्टा। भरोसा गायब हो रहा है। सब सट्टा ही तो है। अभी किसी ने कई करोड़ पेशगी भेजकर किसी देश से सामान मंगवाया। कुछ नहीं आया। व्यापार तो सट्टा हो ही गया। कोई भरोसा नहीं कुछ पल्ले भी पड़ेगा या नहीं। क्या कभी कभी ऐसा आपको नहीं लगता कि जिंदगी के मेले के इस बाज़ार में गलत घुस गए हम, इसमें नहीं आते तभी ठीक था? यहां संपन्नता, सुख-सुविधाएं जैसे ‘भाई’ लोगों या सेठों के अधिकार क्षेत्र में ही हैं। आम आदमी के तो तनाव के खौफ से मस्तियाँ गायब हैं। कभी किसी को नशीब होती हैं तो महंगी भी हैं और क्षणिक भी। औऱ कभी कभी तो गम्भीर दुष्परिणाम देकर जाती हैं। बुरा मत मानना मेले के इस बाजार में ईमानदारी व सिद्धांतों के साथ तो सुखद अनुभव की बहुत कम ही गुंजाइश बची है। किन्हीं मामलों में तो हम फुकरापंथी की हद पार करने लगते हैं। हमारा कोई जवान शहीद होता है तो हमारा मीडिया उसके परिजनों की बाईट लेता है जिसमे वे शहादत पर गर्व करने की बात करते हैं। यह रिवाज सा हो गया है। किस बात पर गर्व है भाई? कोई किसी अपने को खोकर कभी गर्व महसूस करता है? शहीद के परिवार के करीब कोई जाकर देखे तो ही पता चलता है कि शहादत से वे कितने टूट जाते हैं। और बाद में तो शायद ही कोई शुध लेता हो। हमारे जवान की जान किन कारणों से, कैसे चली गई इस पर तो कभी चर्चा नहीं सुनी। कहने भर को तो आज़ाद हैं हम। जश्न मना रहे हैं लेकिन सब कुछ बिखरता सा दिखाई दे रहा है। इस सच्चाई के बावजूद कि औऱ मेलों से तो आप जो मर्जी खरीद लें, जिंदगी का मेला ही ऐसा मेला है जहां से कोई कुछ लेकर नहीं जा सकता। फिर ये आपाधापी, ये ठगी-ठोरी, ये बेईमानियां किस लिए?

 

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