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मुंबई गाजियाबाद 01 दिसंबर 2025 अरुण कौशिक दिलीप शुक्ला—– भइया तब… 2015 की उस काली रात में, जब घड़ी ने 2:30 बजाए थे, सुप्रीम कोर्ट के भारी-भरकम दरवाज़े खुल गए। लाइटें जलीं, जज साहब रात के अंधेरे में रोब पहनकर आए, केवल इसलिए कि एक आतंकी – याकूब मेमन – को फांसी से पहले आखिरी कानूनी सांस लेने का मौका मिल जाए। 257 मासूमों का खून अभी सूखा भी नहीं था, फिर भी देश की सबसे बड़ी अदालत ने रात भर जागकर उसकी दया-याचिका सुनी।
और अब… 2025 में एक नई सुबह लाई है। जस्टिस सूर्य कांत खड़े होकर कहते हैं – “मैं गरीब के लिए आधी रात को भी कोर्ट में बैठ सकता हूँ।”
तब दरवाज़े एक आतंकी के लिए खुले थे, अब दरवाज़े एक गरीब के लिए खुलने को बेताब हैं।
तब रातें जागी थीं उसकी जान बचाने के लिए, अब रातें जागेंगी उसकी जान बचाने के लिए जिसकी कोई आवाज़ नहीं।
तब न्यायपालिका ने दिखाया था कि कानून सबसे ऊपर है, अब न्यायपालिका दिखा रही है कि इंसानियत सबसे ऊपर है।
तब कोर्ट खुला था एक दोषी के लिए, अब कोर्ट खुलने को तैयार है लाखों मासूमों के लिए।
ये सिर्फ एक जज की बात नहीं, ये उस व्यवस्था का दिल बदला है।
जब जज साहब कहते हैं – “गरीब का केस हो तो मुझे 3 बजे रात को भी बुला लो”, तो लगता है… न्याय अब सिर्फ अंधा नहीं रहा, अब वो रो भी सकता है, और गरीब की आंसू देखकर रात भर जाग भी सकता है।
सलाम है आपको जस्टिस सूर्य कांत साहब! आपने वो कर दिखाया जो सालों से सिर्फ सपना था – न्याय को आतंकियों से छीनकर, गरीब के हाथों में सौंप दिया।
अब सच में कह सकते हैं – “ये देश बदल रहा है… क्योंकि अब न्याय, गरीब का हो रहा है।”साभार।।जय हिंद ⚖️❤️।।

