चंडीगढ़ 04 सितंबर न्यूज इंडिया डेस्क:–*श्री कृष्णजी के छठी महोत्सव की बहुत बहुत बधाई उत्साह से एक दूसरे को देखते हुए सुनते हुए इस कथा प्रसंग काफी श्रवण करें।
जब से श्रीकान्हाजी गोकुल में प्रकट हुए हैं, व्रज के घर-घर में आनन्द छा गया। गोपियों को कोई बन्धन है ही नहीं वे तो सूतिकागृह में जा-जाकर श्रीकृष्णजी के दर्शन कर रही हैं, किन्तु बेचारे गोप दर्शनों को परेशान हैं, सूतिकागृह में वे जा नहीं सकते, इसलिये दर्शनानुरागी गोप उदास बैठे हैं घरों में। गोपियाँ अपने घरों में जाकर गोपों से लाला के रूप और माधुर्य का वर्णन करती हुई कहती हैं, ‘नन्दबाबा के लाला के अंग इतने सुन्दर हैं मानो नीलकान्तमणि के अंकुर हों; इतने कोमल हैं मानो तमाल के नवपल्लव हों; इतने स्निग्ध (चिकने) हैं मानो वर्षाऋतु में खिले नवीन कमल हो; इतने सुरभित (सुगन्धित) हैं मानो लक्ष्मी के माथे पर लगा कस्तूरी तिलक हो और इतने आकर्षणशील हैं मानो सौभाग्यलक्ष्मी के नेत्रों में लगा कजरारा अंजन हो।’
गोपियों की बातें उन्हें ऐसे लगती हैं जैसे वे अग्नि में घी डालकर उसे और भड़का रही हों। ऐसे अद्भुत और विलक्षण नन्दबाबा के लाला (शिशु) के बारे में सुनकर व्रज के सभी गोप भी उन्हें देखने के लिए और भी लालायित हो उठते हैं।
लाला के जन्म की छठी के दिन नन्दबाबा और नन्दरानी यशोदा अपने पुत्र की मंगलकामना के लिए सूतिका-गृह में षष्ठी पूजा के लिए आ गये। लाला को नहलाकर सुन्दर वस्त्र पहनाए हैं। गोबर से षष्ठी देवी की सुन्दर मूर्ति बनायी गयी है। सफेद चावलों की वेदी पर षष्ठी देवी की मूर्ति को विराजमान कर पास में कलश स्थापित किया। षष्ठी देवी का षोडशोपचारों से पूजन कर उनको भांति-भाति के व्यजंनों का भोग लगाया और प्रार्थना की—
*नमो देव्यै महादेव्यै सिद्धयै शान्त्यै नमो नम:।*
*शुभायै देवसेनायै षष्ठीदेव्यै नमो नम:॥*
*धनं देहि प्रियां देहि पुत्रं देहि सुरेश्वरि।*
*धर्मं देहि यशो देहि षष्ठीदेव्यै नमो नम:॥*
*भूमिं देहि प्रजां देहि देहि विद्यां सुपूजिते।*
*कल्याणं च जयं देहि षष्ठीदेव्यै नमो नम:॥* (ब्रह्मवैवर्तपुराण, प्रकृतिखण्ड)
कुल की प्रथा के अनुसार यशोदाजी ने अपने पुत्र की छठी पूजी और फिर पीले थापे लगाए। सब गोपबालिकाओं ने सोने के थाल भर-भर के लाला को उपहार दिए और उनको चिरंजीवी होने का आशीर्वाद देकर मंगलगीत गाये–
*पूजत छठी जु कान्ह कुंवर की थापे पीत लगाई।*
*कंचन थार लिएँ ब्रजबनिता रोचन देत सुहाई॥*
*आँजति आँखि जु सबहि सुवासिन, मांगत नैन भराए।*
*सूरदास प्रभु तुम चिरजीयौ, घर-घर मंगल गाए॥* (सूरदास)
षष्ठी पूजन के दिन सभी गोपों की भी श्रीकृष्ण-दर्शन की अभिलाषा पूरी होने का समय आ रहा था, किन्तु नन्दलाला के छठी उत्सव में नन्दबाबा ने कंस के राक्षसों के भय से केवल बंधु-बांधवों को ही बुलाया था। परन्तु आज गोपों के हृदय में उमड़ता तुफान किसे के रोकने से रुकने वाला नहीं था और न ही किसी को निमन्त्रण की आवश्यकता थी। इसलिए छठी के दिन दूर-दूर के गाँवों के गोप-गोपियाँ नन्दमहल के द्वार पर आकर इकट्ठे हो गए।
व्रजरानी यशोदा छठी पूजकर अभी चौक पर से उठ भी नहीं पायीं कि कान्हा की छठी पूजने वालों का तांता लग गया।
‘जैसे किसी सुन्दर सरोवर में एक सुन्दर कमल खिल जाए जो रस से भरा हो; उस विकसित कमल को देखकर मधु के लोभी भंवरें बिना बुलाए उड़-उड़कर चारों तरफ से आ जाते हैं; उसी प्रकार नन्दबाबा के घर रूपी सरोवर में अनुपम माधुर्य और सौरभ से युक्त जो नीलकमल (श्रीकृष्णजी) खिला उसके मधुर रस को पीने के लिए व्रजवासी रूपी भंवरे चारों तरफ से उमड़ पड़े।’
नन्दमहल के मणिमय आंगन में स्तम्भ के सहारे उपनन्दजी की पत्नी, रोहिणीजी और घूँघट निकाले व्रजरानी यशोदा गोद में नीलमणि (श्रीकृष्णजी) को लिए बैठी हैं। पास में बैठीं सुन्दर सजी हुई अनगिनत गोपियाँ मंगलगीत गा रही हैं।
गोपों की अपार संख्या पंक्तिबद्ध होकर लाला का दर्शन कर रही है किन्तु जिसकी दृष्टि उस सलोने चितचोर पर पड़ी, वह वहीं अटक गया। मानो किसी शातिर चोर ने उनकी सुध-बुध चुरा ली हो। आँखें उस नीलमणि के रूप में से हटें, तब तो शरीर आगे बढ़े। कोई आगे बढ़ना ही नहीं चाहता था, सब अतृप्त नयन व हृदय से बार-बार अपने मुख को घुमाकर उस नीलकमल के रूपमाधुर्य रूपी रस को पी लेना चाहते हैं। पीछे से कोई पूछता, ‘नन्दबाबा का लाला कैसा है ?’ परन्तु उत्तर मुख से न निकलता, वाणी मूक हो जाती, कण्ठ भर-भर कर आता, आँखें डबडबा जातीं। उस सौन्दर्य का कोई पूरा वर्णन कर सके, ऐसा जगत में आज तक कोई नहीं हुआ।
*फिरि-फिरि ग्वाल-गोप सब पूजत, अरु पूजत ब्रजनारी।*
*श्रीविट्ठल गिरिधर चिरजीवौ, मांगत ओलि पसारी॥*
नन्दबाबा ने गोपों के दिए उपहारों को बड़ी प्रसन्नता से स्वीकार किया क्योंकि वे उन उपहारों को लाला पर व्रजवासियों के आशीर्वाद के रूप में देख रहे थे और सबसे कह रहे थे—‘तुम्हारे आशीर्वाद से ही मेरा लाल फलेगा-फूलेगा।’
सायंकाल में पौर्णमासी देवी अपने पुत्र मधुमंगल के साथ नन्दनन्दन को आशीर्वाद देने आयीं। (पौर्णमासी देवी को भगवान की योगमाया शक्ति कहा जाता है और मधुमंगल बाद में श्रीकृष्णजी का सखा मनसुखा कहलाया) नन्दरानी ने आशीर्वाद लेने के लिए नीलमणि को उठाकर पौर्णमासी देवी के चरणों पर रख दिया। मधुमंगल ने यशोदाजी से कहा, ‘मैया, ! तनिक नजर उठाय कै ऊपर तो देख, क्या तमाशा हो रहा है। हंस, बैल, गरुड़, मोर, हाथी व रथ पर सवार होकर कौन-कौन आया है। किसी के चार मुँह हैं तो किसी के पांच और किसी के छह। कोई नीला है, कोई काला है, कोई पीला, कोई लाल तो कोई सफेद। कोई भस्मी रमाए है तो कोई चार हाथ वाला है तो कोई छह हाथ वाला।’
मधुमंगल की बात सुनकर नन्दरानी भयभीत हो गयीं कि कहीं कोई राक्षस तो लाला को हानि पहुँचाने नहीं आ गया। पौर्णमासीजी ने सबको समझाया कि आकाश में देवतागण लाला के छठी उत्सव को देखने आए हैं, और आकाश से नन्दनन्दन पर पुष्प बरसा रहे हैं। पौर्णमासीजी की बात सुनकर नन्दरानी का भय शान्त हुआ और उन्होंने सभी देवगणों नजरें झूकाकर प्रणाम किया। इस तरह हर्षोउल्लास से भरपूर, आनन्दायी, यह नन्दलाल का छठी महोत्सव सम्पन्न हुआ।
*श्री राधा कृष्ण जी*
माता-पिता आप हमारेहम शरण में है आपकी
*श्री बलदेव करूणा सदन* गाँव ऊगाला,अम्बाला परिवार संदेश
जय जय श्री राधा कृष्ण जी