बाह्य जग को छोड़ भीतर को टटोल भीतर से जोड़ तार बाकी जग समूचा बेकार:- पंडित कृष्ण मेहता

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चंडीगढ़:- 14 जून:- आरके विक्रमा शर्मा /करण शर्मा/ हरीश शर्मा/ अनिल शारदा प्रस्तुति:—- सुविख्यात ज्योतिषाचार्य और धर्म कर्म के ज्ञाता पंडित कृष्ण मेहता अक्सर अल्फा न्यूज़ इंडिया के लाखों सुधि पाठकों और धर्म में आस्था विश्वास रखने वाले समाज के लिए समय-समय पर अपनी प्रबुद्ध लेखनी द्वारा नाना प्रकार का धार्मिक साहित्य प्रस्तुत करते रहते हैं। ताकि समाज का मानवता का बहुमुखी विकास होता रहे। जानकारी के अभाव में जीवन जीरो है। और जानकारी से भरपूर जीवन जीने वाला दूसरों को भी जीवन जीने की कला सिखा देता है। इसीलिए अल्फा न्यूज़ इंडिया अपने तमाम लाखों पाठकों की ओर से पंडित कृष्ण मेहता जी का हार्दिक धन्यवाद और आभार प्रकट करते हुए उनके स्वास्थ्य दीर्घायु की मंगल कामना करते हैं।।

“अपने आपको जानिये;एक बार आप अपने को समझ लें तो आप दैनिक जीवन की टकराने वाली समस्याओं से निपट सकते हैं|

स्व ज्ञान मन में शांति लाता है और तभी सत्य अस्तित्व में आ सकता है|”

हर आदमी कारण तथा कार्य में विभाजित है|उसे प्रतीत होता है कारण बाहर है, कार्यरुप में वह प्रभावित होता है|अच्छे बुरे प्रभाव का अनुभव करता है|

अपने को समझने का अर्थ है यह समझना कि कारण भीतर है-हमारे विचार, संस्कार, वृत्तियाँ, बुद्धि|

स्रोत भीतर है|

कारण बाहर मानने से समस्याओं से निपटना संभव नहीं होता|समाधान खोजने पर भी वे एक नहीं तो दूसरे रुप में बनी रहती हैं|

कारण भीतर जानने से समस्याओं से निपटना आसान हो जाता है|

जैसे चिंता|अपने को समझने का अर्थ है यह समझना कि चिंता भीतर से आती है, बाहर कोई चिंता नहीं है अर्थात चिंताजनक नहीं है|

हमारे लिए बाहरी व्यक्ति, घटना, परिस्थिति कितने भारी पडते हैं|किसने क्या कहा, क्या किया यही चिंतन का विषय बना रहता है|

जिसने जान लिया कि चिंता भीतर से आती है मतलब बाहर कहीं कोई चिंताजनक व्यक्ति, घटना, परिस्थिति नहीं है तो अब निश्चिंत होकर उससे निपटेंगे|

किसी व्यक्ति ने अपमान जनक व्यवहार किया आपको ठेस लगी तो यह ठेस भीतर से आयी|भीतर अहंकार मौजूद है|तो स्वयं को स्वस्थ, सुदृढ, संतुलित होना रहा|इसके लिए प्रयत्न करना पडता है अपने आप नहीं होता|

यह संभव हो तो बाहर दुर्व्यवहार करनेवाले से निपटा जा सकता है|

तब आप केंद्र में हैं, परिधि पर नहीं;आप स्व निर्भर हैं, उस व्यक्ति पर निर्भर नहीं हैं|

बाहर आवश्यकता पडी हो और धन का अभाव हो तो आप अपने केंद्र में ही रहेंगे-अपनी ही जगह पर रुके हुए|आप विचलित होते हैं तो आप ही कारण हैं, आप विचलित नही होते तो भी आप ही कारण है|धन के होने, न होने से कोई लेनादेना नहीं है|असली समस्या कोई और है|

जरुरत इस बात की पडती है कि अविचलित रहें, विचलित न हों|अब अविचलित रहकर धन के लिए प्रयास करते हैं तो कुछ हो सकता है|कोशिश तो बहुत सारे लोग करते हैं किंतु स्थितप्रज्ञ कहाँ हैं? वे सोचते हैं इतनी फुर्सत कहाँ? जबकि वास्तविकता यह है कि स्थितप्रज्ञता में ही है समझ व शक्ति|

एक मित्र ने पूछा था-इस संसार में हमारी कार्यशैली किस प्रकार की होनी चाहिए?

तो वह स्थितप्रज्ञ जैसी ही होनी चाहिए| चित्त स्थिर हो, बुद्धि स्थिर हो तथा वह वस्तुस्थिति समझने की क्षमता रखती हो|समझ में आना चाहिए|पास में पैसा नहीं है तो नहीं है एक हकीकत है|

सवाल है अब क्या करें, कैसे करें?

तब हमारा स्थिर रहना बहुत जरूरी है|जो कहता है यह असंभव है वह समझता ही नहीं|उसने जीवन के केवल नकारात्मक पक्ष को ही जाना है, सकारात्मक पहलु का उसे कुछ पता नहीं|

इसी संसार में ऐसे लोग मिल जायेंगे जो बडे निडर, बेपरवाह, बेखौफ और स्वाभिमानी होते हैं|यह विशेषता कहाँ से आयी?

प्रकृति के सत्व, रज, तमोगुण जिसमें जिस मात्रा से होते हैं वैसा ही वह व्यक्ति करता है|यहाँ तक कि निर्णय करनेवाली बुद्धि भी सात्विक, राजसी, तामसी हो सकती है|जैसी बुद्धि होती है वैसा ही समझ में आता है|

मिश्र भी हो सकता है जैसे सात्विक राजसिकता, सात्विक तामसिकता,राजसी सात्विकता, राजसी तामसिकता, तामसी सात्विकता, तामसी राजसिकता|कृष्ण कहते हैं-जो गुण अधिक बलवान होता है वह दूसरे दो गुणों को दबा देता है|दूसरे दो गुण पहले की अध्यक्षता में कार्य करते हैं|

सब कुछ भीतर है अतः भीतर क्या है उसी पर सब निर्भर करता है|

भीतर भय है तो बाहर आदमी छोटी मोटी चीजों से भी भयभीत हो जायेगा, अकारण भयभीत हो जायेगा|यदि उसमें स्व ज्ञान है तो वह अपने भीतर भय को पकड लेगा|अब बहुत रास्ते खुलेंगे, अनेक संभावनाएं बनेंगी|बाहर से ध्यान हट जायेगा|अब तो अपने भय से मुक्त होना रहा|इसके अनेक रास्ते हैं जिनमें एक यह भी है कि अपने भय से दूर मत भागिये|वह आप ही हैं|अपने साथ रहिये-सारे रास्ते खुलेंगे मुक्ति के|

किसीने कुछ कह दिया हम कितने ऊंचे नीचे होते हैं जबकि हमें ही स्वस्थ, शांत, संतुलित होना पडता है चाहे कितना ही कठिन हो,

अन्य कोई उपाय नहीं|

यह सोचना सही नहीं कि संतुलित होना असंभव है|

नहीं|पूर्णतया संभव है|

हम भयमुक्त हैं भीतर से तो बाहर तथाकथित भय जनक से निपटना बेहद आसान हो जाता है|

सभी खतरों में सेना को भेजा जाता है|उनमें खतरे की मानसिकता होती ही नहीं, वे तो बस निपटना जानते हैं|

न डरते हैं, न दबते हैं किसी भी व्यक्ति या परिस्थिति से|

सारे कारण अपने भीतर हैं यह समझना हर एक के लिए अत्यंत आवश्यक है|ऐसा नहीं है कि यह अमुक के लिए है, अमुक के लिए नहीं है|यह सभीके लिए है|

सुख कौन नहीं चाहता? सभी लोग सुख चाहते हैं लेकिन बहुत ही थोडे लोग हैं जो जानते हैं कि सुख भीतर से आता है, बाहर से नहीं|

जो ऐसा मानता है कि सुख बाहर से आता है वह बाहर कोशिश करेगा, लोगों को विक्षेप करेगा, नहीं भी करेगा तब भी दृष्टि बाहर ही रहेगी, वस्तुस्थिति से वह नितांत अनभिज्ञ रहेगा ‘अहंकारविमूढात्मा’ बनकर|

वह अपने को कर्ता भी मानेगा, भोक्ता भी|

लेकिन जिसने जान लिया सुख भीतर से ही आता है तो अब वह मूर्छित भोक्ता कैसे बनेगा, अब वह स्वयं सुखस्वरूप बन जायेगा|

सुख बाहर से है ऐसा भ्रम है तो आदमी मूर्छित भोक्ता बनता ही है|परनिर्भर तथा अभाव हो तो पीड़ित, परेशान|

वास्तविकता यह है कि सुख भीतर आत्मा में से, स्वयं में से, स्रोत में से ही आता है|

इसलिए जब भी बाहर किसी वस्तु, व्यक्ति, स्थान से सुख की प्रतीति होती हो तो तुरंत उससे दृष्टि हटाकर स्वयं पर स्थिर करनी चाहिए कि अभी जो सुख मालूम पड रहा है वह भीतर से है|उसमें रहना चाहिए, उसमें टिकना चाहिए|तब यह आंतरिक सुख अभ्यास हो जाता है जो स्वस्थ होने में मदद करता है|

सुख का कारण बाहर माना, किसी और को माना तो परनिर्भरता की समस्या उत्पन्न होती है|वह कभी बडे दुख का कारण बन सकती है|बनती ही है|अधिकांश लोग इसी में उलझे हैं|गीता कहती है-

“संसार में इच्छा और द्वेष से उत्पन्न हुए सुख दुख आदि द्वंद्वरुप मोह से संपूर्ण प्राणी अति अज्ञानता को प्राप्त हो रहे हैं|’

सुख का कारण बाहर है तो उसकी इच्छा होगी ही|इच्छा है तो संघर्ष भी होगा ही|हम किसीको गुलाम बनाना चाहेंगे और वह कतई इसके लिए तैयार नहीं होगा|

इसकी जगह अगर मैं सुख को मेरे भीतर से आता जानकर उसमें स्थिर होता हूं तो मैं आत्मनिर्भर हो जाता हूँ|अब मैं बाहर सबसे स्वतंत्र हूं और तब सबके प्रति प्रेमपूर्ण, आदर पूर्ण, सहयोग पूर्ण होना आसान हो जाता है|इससे किसे परहेज है? सभी लोग यही तो चाहते हैं|अहंकार किसे पसंद है लेकिन और कोई रास्ता मालूम न होने से अहंकार का सुख का रास्ता ही सही लगता है|वह भ्रामक है|

वह रास्ता है ही नहीं, भटकन ही है|

बाहर किसी से मिले बिना, पाये बिना चैन नहीं पडता तो समस्या है ही|यह रहस्य पकड में आ गया कि सुख तो मेरे ही भीतर से आ रहा है तो खुद पर क्या कब्जा करना, खुद से क्या मिलना, खुद तो मिला ही हुआ है|

“यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं तत:|यस्मिन्स्थितो न दु:खेन गुरुणापि विचाल्यते||”

-श्रीमद्भगवद्गीता ६|२२||

जो पिछले जन्मों से साधना करते आ रहे हैं उन्हें तत्काल यह सब समझ में आता है|जिसे नहीं आता वह शांत रहकर समझने की कोशिश करे|सत्पथ पर चलना सदैव कल्याणकारी है|

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