चंडीगढ़ नयी दिल्ली:-03 जुलाई:- राजेश पठानिया अनिल शारदा/ सुमन वैदवाल प्रस्तुति:— सोशल मीडिया एक बार फिर अपनी सकारात्मक छवि सबके सामने प्रस्तुत करते हुए देश को एक बहुत बड़े संप्रदायिक संकट से बचा लिया है। और इस निंदनीय संकट में धकेलने का काम सुप्रीम कोर्ट के दो माननीय जस्टिसों ने किया है। हिंदुस्तान में किताब में लिखी बात को बोलना बहुत बड़ा गुनाह है। और इसे बोलने वाले का सिर कलम करना और एक करोड़ रुपया इनाम पाना कोई जुर्म नहीं है। ऐसा कोर्ट की इस कार्रवाई से सिद्ध हुआ है। पब्लिक ने अपना दमखम दिखाया। और देश को सांप्रदायिकता की आग में झोंकने वालों को भी आईना दिखा दिया कि न्याय की कुर्सी पर बैठकर मन मर्जी नहीं चलेंगी ।दूरदर्शिता देशभक्ति, न्याय और कानून संगत तर्क ही मान्य रहेंगे। दोनों जस्टिस इस पर अभी तक किसी भी प्रकार की टिप्पणी करने से दूर हैं। उनकी यह टिप्पणी रिकॉर्ड से हटा दी गई है। और इसे जजों की अपनी निजी सोच कहा गया है। और इस सोच का देश ने थू थू करके बहिष्कार किया है। जनता का उबाल सिर चढ़कर बोल रहा है कि आखिर ऐसे लोगों को सुप्रीम कोर्ट ने इतनी बड़ी जिम्मेदारी कैसे सौंप दी है। जो इस तरह की बचकाना टिप्पणियां करके देश में संप्रदायिकता सद्भाव को अलग ही दिशा की ओर ही मोड रहे हैं। हैरत की बात तो यह है कि जिस विशेष धर्म संप्रदाय को खुश करने के लिए यह देश दहला देने वाली टिप्पणी की गईं। उस समाज ने भी जस्टिसों की इस टिप्पणी पर हैरत और संदेह भरी निगाह डाली है।
आखिर सोशल मीडिया का उबाल काम आया।
सुप्रीम कोर्ट के जज के बयान को व्यक्तिगत राय मानते हुए निर्णय में से निकाल दिया गया है।
इसका सीधा सा मतलब यह है कि विवादित टिप्पणी को सुप्रीम कोर्ट का न माना जाय …
बल्कि
एक चाटुकार कांग्रेसी की नमक दलाली भर मानी जाय।
टिप्पणी की आलोचना कंटेम्प्ट ऑफ कोर्ट नहीं मानी जाएगी।
निपटाओ…