चंडीगढ़:01 मार्च:- अल्फा न्यूज़ इंडिया डेस्क प्रस्तुति:—
कोई भी प्रतिकूल परिस्थिति नहीं चाहता यह ठीक है लेकिन थोडे ही लोग हैं जो भीतर से उठते प्रतिकूल विचार नहीं चाहते।
इसे जान लेना महत्वपूर्ण है कि प्रतिकूल विचार पैदा न हो तो प्रतिकूल परिस्थिति का आभास न हो।
समझ शक्ति अच्छी हो तो तथाकथित प्रतिकूल परिस्थिति का समाधान खोज लिया जा सकता है।
उसके अभाव में कठिनाई है फिर भी यह जान लिया जाय कि समस्या का कारण हमारे विचार ही हैं,न कि तथाकथित परिस्थितियां तो रास्ता खुलने की संभावना होती है।
अलग अलग लोगों के अलग अलग विचार हैं तो अलग अलग उनकी परिस्थितियां भी हैं।बाहरी का सवाल ही नहीं है।कोई सर्वथा अभाव में भी खुश रह सकता है।कोई सर्वसुविधायुक्त होने पर भी परेशान रह सकता है।
ज्ञात
विचार,दृश्य, स्मृतियां परेशान करते रहते हैं।यह बौद्धिक रुप से समझ में आने पर भी मुक्ति मिलती नहीं।
ज्ञात यदि ज्ञाता में विलय हो जाय तो कुछ हो सकता है।
यह ध्यान किया जा सकता है कि-
‘सुखद,असुखद जो भी ज्ञात है वह ज्ञाता मुझमें विलय हो रहा है।’
ज्ञात मन,ज्ञाता मन में समा जाय,ज्ञात मन की ज्ञाता मन से पृथकता,दूरी,अलगाव सर्वथा समाप्त हो जाय तो आत्मबोध के लिये,स्व में स्थिति के लिये रास्ता साफ हो जाता है।
यह भी ध्यान किया जा सकता है-
‘मेरा सारा प्रक्षेपित विश्व वापस मुझमें समा रहा है।’
स्वयं के स्वरुप में स्थित होने से शांति हो जाती है।
इस कारण से कहा जाता है-
‘शास्त्र ले जायेगा गुरु तक और गुरु ले जायेगा स्वयं तक।’
स्वयं का सत्य स्वयं में अर्थात् परम में प्रतिष्ठित कर देता है।
कोई कोई कहते हैं-आत्मस्थिति से परमात्मा में समाना आसान है।
हम परिणाम की बहुत फिक्र न करें।हम स्वयं में ठहर जायं तो काफी है।शेष सब स्वतः होता है।
अभी यह मुश्किल बना हुआ है।चित्त मानसपटल पर सतत उभरते स्मृति दृश्यों की ओर खिंचा रहता है।खिंचा ही नहीं रहता बल्कि उनमें खोया भी रहता है।बाहर चला जाता है।इससे स्व में स्थित होने के महत्त्व का पता नहीं चलता।पता चले तो भी क्रियान्वित करने में कठिनाई आती है।चित्त स्मृति दृश्यों में घूमता,भटकता फिरता है।
कोई कोई मानसपटल पर ध्यान देता है तो वह पकड में नहीं आता।पता नहीं चलता कि ये दृश्य कहां दिखाई पडते हैं?
ऐसा भी लगता ये आंखों में ही दिखते हैं।परंतु आंखें भी पीछे किसीसे जुडी हुई हैं।
जाननेवाले बताते हैं-
‘मानसपटल,आज्ञाचक्र में स्थित है।आज्ञाचक्र का स्थान भ्रूमध्य है-दोनों नेत्रों के बीच में।’
इसका मतलब सभी स्मृति दृश्यों को भ्रुमध्य में आज्ञाचक्र में ही देखने की कोशिश की जाय तो अस्थिरचित्त, स्थिर हो सकता है।
होता ही है।जो कोशिश करते हैं उन्हें इसका पता चल जाता है।यह एक प्रकार का ध्यान है।इसके लिये समय ही न हो तो कैसे हो सकता है?
कुछ लोग आज्ञाचक्र को नहीं जान पाते तो कोई बात नहीं, वे चित्त को भ्रुमध्य में स्थिर करें।उसीको समस्त दृश्यों के स्रोत के रुप में देखना शुरू करें तो उत्तम,रचनात्मक परिणाम आते हैं।
वह जगह महत्वपूर्ण है।वह जगह आज्ञाचक्र की जगह है और मानसपटल,आज्ञाचक्र में स्थित है जिसमें सभी तरह के स्मृति दृश्य उभरते रहते हैं।
‘मैं शरीर हूं,व्यक्तित्व हूँ’ यह भी दृश्य है।
तब हम अपने को शरीर के रुप में देखते हैं अन्य सभी दृश्यों के साथ-यह सब दिखाई पडना बंद हो जाता है।
द्रष्टा,दृश्य के न रहने पर स्व रह जाता है।
मन को इसमें बाधक बताया क्योंकि मन अपने को द्रष्टा, दृश्य में बांट लेता है।
इस विभाजन का कार्यक्षेत्र है आज्ञाचक्र और यह दोनों नेत्रों के मध्य स्थित है।
यह विभाजन न हो तो चित्त स्वतंत्र हो जाता है,स्थिर हो जाता है।स्थिरचित्त स्वत:स्व में-आत्मा(सेल्फ)में समाहित हो जाता है।जो हमारा सच्चा,आधारस्वरुप है।जिसे उपलब्ध होने का अर्थ है परम शांति।परम सुख।
मन द्रष्टा, दृश्य में विभाजित होकर सुखशांति की तलाश करता है।वह तलाश कभी पूरी नहीं होती।मन मिटे तो कुछ हो।
इसलिए या तो ज्ञात मन को पूरी तरह से ज्ञाता मन में समा लिया जाय रुककर,ठहरकर
या
समस्त स्मृति दृश्यों को भ्रुमध्य में ही देखने की कोशिश की जाय।सबकी जगह एक ही रहे और वही रहे तो सब उसमें समा जाता है।अन्यत्र देखने या अन्यत्र मानने से अलगाव,बिखराव,दूरी और इधर उधर ध्यान भटकने की स्थिति पैदा होती है।चित्त ही भटकता है।
सारे मंगलकारी परिणाम चित्त के स्थिर रहने पर ही संभव हैं।
तब न केवल आत्मोपलब्धि होती है बल्कि शांति से,स्थिरता से तथाकथित सांसारिक समस्याओं का समाधान करने की शक्ति भी आ जाती है।
कुरुक्षेत्र में अर्जुन अस्थिरचित्त का प्रतीक है तो कृष्ण पूरी तरह से स्थिरचित्त के।समझा जा सकता है गीतासंदेश की सामर्थ्य किसमें है और किसमें नहीं है।l