. चंडीगढ़: 18 अक्टूबर:- आरके विक्रमा शर्मा+करण शर्मा प्रस्तुति:—– भगवान सब पर एक समान दृष्टि रखते हुए सर्वत्र कल्याण करते हैं क्योंकि भगवान का पर्याय ही कल्याण है यह विचार जाने वाले ज्योतिष आचार्य और पंडित कृष्ण मेहता ने व्यक्त किए और बताया कि
*इष्ट में शक्ति की स्वीकृति पर विवेक*
*की अस्वीकृति यही आसुरी वृत्ति है.*
कहा जा सकता है कि अवतारों में सच्चिदानन्द के तीन तत्त्वों में से एक एक की प्रधानता है. तीन तत्त्व हैं, सत् , चित् और आनन्द. चित् तत्त्व की प्रधानता में नृसिंह, सत् की पूर्णता में राम और समग्र आनन्द की अभिव्यक्ति कृष्ण में दिखायी देती है.
हिरण्यकशिपु ईश्वर की सत्ता को अस्वीकार कर देता है. अतः सर्वव्यापक चैतन्य अद्भुत रुप में व्यक्त होता है. नृसिंहावतार में भगवान् राम और कृष्ण की भांति अभिव्यक्ति की लौकिक पद्धति का भी आश्रय नहीं लिया गया है. वहाँ माता-पिता का अभाव है, और स्तम्भ से ही ब्रह्म का प्राकट्य होता है. रुप भी अभूतपूर्व है, आधे नर और आधे सिंह के मिश्रित स्वरुप की तो किसी के मन में कोई कल्पना तक नहीं थी. १. स्तम्भ को जड़ माना जाता है, २. पशु चेतन है फिर भी उसे अर्धचेतन ही कह सकते हैं. मनुष्य पूर्णचेतन माना जाता है. नर और पशु के सम्मिलित स्वरुप में स्तम्भ से प्रगट होकर भगवान् ने अपनी सत्ता को प्रमाणित कर दिया. प्रहलाद की वृत्ति ईश्वर के प्रति पूरे अर्थों में सर्वव्यापकता की थी, इसीलिए उसमें भय का लेश नहीं. मनुष्य ही क्यों सिंह रुप में भी तो भगवान् ही हैं. फिर आस्तिक के अन्तःकरण में कहीं भी भय क्यों हो ? तुलसीदासजी प्रस्तर-प्रतिमा के पूजन की परम्परा का श्रीगणेश प्रहलाद द्वारा पत्थर के स्तम्भ से प्रभु के प्राकट्य को ही देते हैं.
दैत्य शरीरवादी हैं, इसलिए वह शरीर से ही अमर होना चाहता है. विचारक की अमरता यशःशरीर की अमरता है. पर दैत्य के लिए तो शरीर से परे कोई नित्य जीवतत्त्व है नहीं अतः वह उसे ही बनाए रखने की सारी चेष्टाएँ करता है.
काल के द्वार को कोई बन्द नहीं कर सकता. उसके मार्ग अप्रत्याशित होते हैं. नृसिंह न तो नर थे न पशु , उन्होंने न तो उसे दिन में मारा और न तो रात्रि में ; वह सांध्यवेला थी. न भीतर वध हुआ न तो बाहर, वह भवन की देहरी थी , जहाँ नृसिंह विराजमान हुए और अस्त्र-शस्त्र के स्थान पर सिंह के नख काम में आये. हिरण्यकशिपु को अपनी बुद्धिमता पर इतना भरोसा था कि वह समझे बैठा था कि मैंने तपस्या से वह पा लिया, जिसे ब्रम्हा नहीं देना चाहते थे. पर अन्त में पता चला कि उसका तप केवल श्रममात्र ही सिद्ध हुआ क्योंकि उसने उसके बदले में जो पाया उसका कोई अर्थ था ही नहीं.
पुराणों में ऐसी कथाएं बार-बार दुहराई गई हैं जहाँ असुरों ने इसी प्रकार की वृत्ति से प्रेरित होकर चतुराई का प्रदर्शन किया और मारे गए. असुर जब ब्रम्हा से वरदान मांगता है तब उसे यह भरोसा होता ही है कि ब्रम्हा इतने शक्तिशाली हैं कि वे चाहे जो दे सकते हैं पर उनको भी ठगने की चेष्टा का तात्पर्य यही है कि असुर ब्रम्हा को अपनी अपेक्षा बुद्धिमान नहीं मानता. *इष्ट में शक्ति की स्वीकृति पर विवेक की अस्वीकृति यही आसुरी वृत्ति है.* 👺
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