श्री कृष्ण के उपदेश का एक-एक शब्द कई पीढ़ियों का करता उद्धार

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चंडीगढ़:-7 अक्टूबर:- आरके शर्मा विक्रमा+करण शर्मा प्रस्तुति:— 🎋📍⚡♓🎵🅰 न मां दुष्कृतिनो मूढाः प्रपद्यन्ते नराधमाः। माययापहृतज्ञाना आसुरं भावमाश्रिताः।। 15।।

चतुर्विधा भजन्ते मां जनाः सुकृतिनोऽर्जुन।

आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ।। 16।।

*♓📍🎵👌📍 माया द्वारा हरे हुए ज्ञान वाले और आसुरी स्वभाव को धारण किए हुए तथा मनुष्यों में नीच और दूषित कर्म करने वाले मूढ़ लोग तो मेरे को नहीं भजते हैं। और हे भरतवंशियों में श्रेष्ठ अर्जुन, उत्तम कर्म वाले अर्थार्थी, आर्त, जिज्ञासु और ज्ञानी अर्थात निष्कामी, ऐसे चार प्रकार के भक्तजन मेरे को भजते हैं।*

⚡♓⭕ कौन करता है प्रभु का स्मरण, इस संबंध में कृष्ण ने कुछ बातें कही हैं।

मनुष्य जाति को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है। और जब दुनिया से सारे वर्ग मिट जाएंगे, तब भी वही विभाजन अंतिम सिद्ध होगा।

 

बहुत तरह से आदमी को हम बांटते हैं। धन से बांटते हैं; गरीब है, अमीर है। शिक्षा से बांटते हैं; शिक्षित है, अशिक्षित है। चमड़ी के रंगों से बांटते हैं; गोरा है, काला है। हजार तरह से आदमी को हम बांटते हैं। लेकिन जो परम विभाजन है, जो अंतिम विभाजन है, वह न तो चमड़ी से तय होता, न धन से तय होता, न यश से तय होता, न शिक्षा से तय होता। ये सब बातें बहुत ऊपर और बहुत बाहर हैं, बहुत सतह पर। अंतिम विभाजन तो एक ही है, वे जो प्रभु-उन्मुख हैं, और वे जो प्रभु-उन्मुख नहीं हैं। वे जिनकी आंखें परमात्मा की तरफ उठ गई हैं; और वे जो पीठ किए हुए परमात्मा की तरफ खड़े हुए हैं।

कृष्ण कहते हैं, मूढ़जन मुझे नहीं भजते हैं।

कठिन लगेगा यह शब्द। और कृष्ण किसी को मूढ़ कहें, तो लगेगा, गाली दे रहे हैं। लेकिन जहां तक कृष्ण का संबंध है, वे केवल एक तथ्य की सूचना कर रहे हैं। एक फैक्ट। और मूढ़ कहना गाली नहीं है, मूढ़ कहना केवल एक तथ्य की घोषणा है।

सच ही वह आदमी मूढ़ है, जो परमात्मा की तरफ पीठ किए खड़ा है। इसलिए नहीं कि इससे परमात्मा की कोई हानि है और इसलिए कृष्ण नाराज होकर उसे मूढ़ कह रहे होंगे। बल्कि इसलिए कि वह अपना ही घात कर रहा है, आत्मघात कर रहा है।

मूढ़ किसे कहते हैं? मूढ़ विशेष शब्द है। मूढ़ का अर्थ सिर्फ मूर्ख नहीं होता। इसे थोड़ा समझ लेना पड़ेगा। मूढ़ पारिभाषिक शब्द है। अगर मनसविद से पूछेंगे, तो मनसविद जिसे ईडियट कहता है, उसे संस्कृत में मूढ़ कहा जाता है। उसका मतलब फुलिश नहीं है, उसका मतलब मूर्ख नहीं है। क्योंकि मूर्ख और बुद्धिमान में जो अंतर होता है, वह गुणात्मक होता है, डिग्री का होता है। जिसको आप मूर्ख कहते हैं, वह थोड़ा कम बुद्धिमान है; बस। और जिसको आप बुद्धिमान कहते हैं, वह थोड़ा कम मूर्ख है; बस। उन दोनों के बीच जो अंतर है, वह मात्रा का है, गुण का नहीं है। क्वालिटी का नहीं है, क्वांटिटेटिव है।

फिर दो शब्द और हैं, एक जिसको हम कहते हैं मूढ़; और दूसरा, जिसको हम कहते हैं मेधावान। उनके बीच जो अंतर है, वह क्वालिटी का है, गुण का है, क्वांटिटी का नहीं है।

मूढ़ से मतलब है, ऐसा आदमी, जो जिस शाखा पर बैठा हो, उसी को काटता हो।

कालिदास की कथा हमने पढ़ी है। वे मूढ़ के प्रतीक हैं। बैठे हैं वृक्ष पर, शाखा को काट रहे हैं। और जिस शाखा को काट रहे हैं, उसी पर बैठे हुए हैं। गिरेंगे ही। और कोई और जिम्मेवार न होगा। खुद ही शाखा को काट रहे हैं। और जितनी शाखा कटती है, कालिदास उतने प्रसन्न हो रहे होंगे, क्योंकि सफलता मिल रही है। हालांकि सफलता कुल इसमें मिल रही है कि वे थोड़ी देर में गिरेंगे और हाथ-पैर तोड़ लेंगे।

मूढ़ से मतलब है, ऐसा व्यक्ति, जो आत्मघात में लगा हो; स्युसाइडल। मेहनत भी करता हो, तो अपने को ही नुकसान पहुंचाता हो। श्रम भी करता हो, तो अपना ही घात करता हो।

निश्चित ही, परमात्मा के खिलाफ जो पीठ करके खड़े हैं, उनसे बड़ा मूढ़ कोई भी नहीं हो सकता। क्योंकि शाखाओं पर से कोई काटकर गिर भी पड़े, तो कितना नुकसान होने वाला है! लेकिन परमात्मा की तरफ पीठ करके खड़ा हुआ आदमी तो सब भांति के नुकसान में पड़ जाएगा।

इसलिए कृष्ण जब मूढ़ कहते हैं, तो आप मत सोचना कि गाली दे रहे हैं। वे केवल सूचना दे रहे हैं कि ऐसे व्यक्ति को हम मूढ़ कहते हैं। क्योंकि परमात्मा है हमारी परम संपदा। उसके बिना हम दरिद्र ही रहेंगे, चाहे हम कितनी ही संपत्ति इकट्ठी कर लें। और परमात्मा है परम यश। उसके बिना हम पदहीन ही रहेंगे, क्योंकि वह है परम पद, चाहे हम कितने ही बड़े पदों पर पहुंच जाएं। और परमात्मा के बिना हम कहीं भी नहीं पहुंच सकते हैं, चाहे हम कितनी ही यात्रा करें। हम आखिर में पाएंगे कि हम वहीं खड़े हैं, जहां जन्म ने हमें खड़ा किया था। मौत के वक्त हम वहीं खड़े हुए मिलेंगे। हमारी सब दौड़ व्यर्थ जाने वाली है।

असल में परम शक्ति को इनकार करना वैसा है, जैसा मैंने सुना है कि एक बेल एक भवन पर चढ़ती थी। लेकिन एक दिन एक नास्तिक से उस बेल का मिलना हो गया और उस नास्तिक ने कहा कि यह तेरी मजबूरी है कि तुझमें फूल आते हैं। यह कोई तेरा गौरव नहीं है।

बेल को तो पता ही न था। वह तो फूल खिलते थे, तो आनंद से नाचती थी; पक्षियों को निमंत्रण देती थी। सूरज की किरणें आती थीं, तो सुगंध बिखेरती थी। उस नास्तिक ने कहा, पागल, यह तेरी कोई गरिमा और कोई गौरव नहीं है। तू तो मजबूर है बढ़ने को। फूल खिलाने के लिए मजबूरी है तेरी। यह तेरी गुलामी है। तू चाहे तो भी फूल खिलना रुक नहीं सकता।

जैसा कि सार्त्र ने कहा है। सार्त्र का प्रसिद्ध वचन है, मैन इज़ कंडेम्ड टु बी फ्री। शायद स्वतंत्रता के साथ कंडेम्ड का प्रयोग दुनिया में किसी दूसरे आदमी ने इसके पहले नहीं किया था। सार्त्र कह रहा है, मनुष्य स्वतंत्र होने के लिए बाध्य है। या कहना चाहिए, मनुष्य स्वतंत्र होने के लिए निंदित है। उसे स्वतंत्र होना ही पड़ेगा। स्वतंत्रता उसकी गुलामी है। कोई उपाय नहीं है; स्वतंत्र होना ही पड़ेगा। जबर्दस्ती स्वतंत्र किया जा रहा है।

ऐसा उस नास्तिक ने कहा, यू आर कंडेम्ड टु ग्रो एंड टु फ्लावर। तुम निंदित हो कि तुममें फूल खिलें और तुम बढ़ो। इसमें तुम्हारा कोई गौरव नहीं है।

निश्चित ही, बेल को बड़ी तकलीफ हुई। फूल तो उसकी छाती पर अब भी खिले थे, लेकिन बेकार हो गए। पहली बार अहंकार जागा। और उसने आकाश की तरफ सिर उठाकर परमात्मा से कहा कि बस, अब मैं बढ़ने से इनकार करती हूं। अब मैं इनकार करती हूं; ठीक से सुन लो कि अब मैं नहीं बढूंगी। और अब मैं इनकार करती हूं कि अब मैं फूल नहीं खिलाऊंगी। और अब मैं इनकार करती हूं कि मुझमें फल नहीं लगेंगे।

परमात्मा ने कहा, जैसी तेरी मर्जी। क्योंकि प्रेम का अर्थ ही यह है कि वह आपको अपनी मर्जी पर पूरी तरह छोड़ दे। प्रेम का अर्थ ही यह है कि वह अपनी मर्जी आपके ऊपर न थोपे। परमात्मा ने कहा, जैसी तेरी मर्जी।

लेकिन उसी दिन से बेल बड़ी बेचैन हो गई। क्योंकि भीतर तो प्राणों की ऊर्जा बढ़ना चाहती थी। भीतर तो रस चल रहा था। जमीन से रस अपशोषित किया जा रहा था। सूरज से किरणें पीयी जा रही थीं। हवाओं से आक्सीजन लिया जा रहा था। पानी की धार भीतर बह रही थी। यह सब जारी था। और बेल ने कहा, मैं बढूंगी नहीं।

समझ सकते हैं, मुसीबत शुरू हो गई। भीतर से बढ़ने का धक्का प्राणों में, और बेल अपने को बाहर से रोके। भीतर तो सुगंध जमीन से इकट्ठी होने लगी और फूल खिलने को मचलने लगे, और बेल ने इनकार किया कि फूल मैं खिलने न दूंगी।

जिस बेल में बड़ी बढ़ती होती थी और जो आकाश की तरफ उठती थी, वह जमीन की तरफ झुक गई। उसमें गांठें पड़ गईं। जो शक्ति बीज बन सकती थी, वह गांठ बन गई। और जिससे फूल पैदा होते, उससे बेल सिर्फ बेचैन, परेशान हो गई। रात की नींद खो गई, सुबह का आनंद खो गया। पक्षी अब भी गीत गाते, तो बेल को बुरे मालूम पड़ते। क्योंकि पक्षियों के गीत वसंत की याद दिलाते, जब फूल खिलते थे। और जब सूरज निकलता, तो बेल बेचैन होती, उसे याद आती उन दिनों की, जब बेल बढ़ती थी। और जब आकाश में बादल घूमते, तो बेल कष्ट पाती, क्योंकि इन बादलों से उस सब की याद जुड़ी थी, जब इनसे बरसा होती थी और बेल तृप्त होती थी।

अब बेल बिलकुल पागल हो गई। एक दिन घबड़ाकर उसने परमात्मा से कहा कि मैं बिलकुल पागल हुई जा रही हूं। परमात्मा ने कहा, जैसी तेरी मर्जी। मैंने तुझे कभी पागल होने को नहीं कहा। तू अपने ही हाथ से और तू अपने ही आंतरिक स्वभाव से लड़ रही है। क्योंकि परमात्मा से लड़ना, अपने ही स्वभाव से लड़ना है।

जब भी कोई आदमी परमात्मा के खिलाफ खड़ा होता है, तो किसी गहरे अर्थों में अपने खिलाफ खड़ा हो जाता है। वह उन्हीं शाखाओं को काटने लगता है, जो उसके प्राण हैं। और जब भी कोई व्यक्ति परमात्मा के विपरीत पीठ करता है, तो वह अपने से ही अजनबी हो जाता है। क्योंकि वह अपने ही तरफ पीठ कर रहा है।

परमात्मा ने कहा कि तू अपने हाथ से मुसीबत में पड़ गई है। ये जो गांठें तुझे दर्द दे रही हैं, ये तेरे भीतर बीज बन सकती थीं। और ये जो पत्ते कुम्हलाकर जमीन की तरफ झुक गए हैं, ये आकाश में खिले हुए फूल बन सकते थे। और आज पक्षियों के गीत कष्ट देते हैं, और सुबह की सूरज की किरणें भी प्राणों में भालों की तरह छिद जाती हैं। और आकाश में बादल उठते हैं, पहले भी उठते थे, तब तू नाचती थी मोरों के साथ; लेकिन अब तू नाचती नहीं, तू अपने को सम्हालकर खड़ी रहती है। तू अपने ही खिलाफ हो गई है! यह अपने से विरोध छोड़। क्योंकि परमात्मा से विरोध अपने से ही विरोध है।

कृष्ण कह रहे हैं, वह आदमी मूढ़ है।

इस बेल की तरह है वह आदमी, जो परमात्मा का भजन नहीं कर रहा है। भजन का अर्थ है, जो परमात्मा और अपने बीच कोई सेतु नहीं बना रहा है; जो परमात्मा की शक्ति को अपनी शक्ति नहीं मान रहा है; जो परमात्मा और अपने बीच किसी तरह का विरोध और रेजिस्टेंस खड़ा कर रहा है, वह आदमी मूढ़ है। क्योंकि वह किसी और से नहीं लड़ रहा है, वह अपने से ही लड़ रहा है। और हारेगा, क्योंकि बड़ी विराट ऊर्जा से लड़ रहा है। लहर सागर से लड़ने चल पड़ी!

तो कृष्ण एक तथ्य की बात कहते हैं। कहते हैं, मूढ़ है वह आदमी। मूढ़ मुझे नहीं भजते हैं।

इसमें कई दफे पढ़कर ऐसा लगता है कि जो कृष्ण को नहीं भजता है, कृष्ण उसको गाली दे रहे हैं कि तुम मूढ़ हो। नहीं, ऐसा नहीं है। नहीं भजते हो, इसलिए मूढ़ हो, ऐसा नहीं। मूढ़ हो, इसलिए नहीं भजते हो। और इस मूढ़ता में आत्मघात छिपा है, अपना ही विनाश छिपा है। सेल्फ-डिस्ट्रक्टिव, आत्मविनाश की वृत्ति छिपी है। और हम सबके भीतर आत्मविनाश की वृत्ति है।

फ्रायड ने तो अपने जीवन के अंतिम दिनों में, मनुष्य के भीतर एक डेथ विश, मृत्यु की आकांक्षा भी है, इसकी खोज की है। फ्रायड ने जिंदगीभर एक ही चीज की बात की थी, वह थी ईरोज, कामवासना, जीवन की इच्छा। लेकिन अंत में उसे लगा कि यह अधूरी बात है। आदमी के भीतर मरने की इच्छा भी छिपी हुई है। उसे उसने थानाटोस, डेथ विश, मृत्यु की आकांक्षा कहा। उसने कहा कि आदमी के भीतर कोई ऐसा तत्व भी है, जो स्वयं को भी नष्ट करने के लिए आतुर रहता है।

इस खोज ने सारे पश्चिम में हैरानी पैदा कर दी थी। लेकिन पूरब इसे सदा से जानता है। सदा से जानता है कि आदमी के भीतर जीवन की आकांक्षा भी है, और मरने की आकांक्षा भी है। स्वस्थ आदमी वह है, जो जीवन की आकांक्षा पर यात्रा करता है। अस्वस्थ, रुग्ण आदमी वह है, जो मृत्यु की आकांक्षा पर यात्रा करने लगता है।

ध्यान रहे, जो आदमी जीवन की आकांक्षा से जीता है, वह परमात्मा की तरफ उन्मुख हो जाता है; और जो आदमी मृत्यु की आकांक्षा से भर जाता है, वह परमात्मा की तरफ विमुख हो जाता है।

यह जो फ्रायड ने बहुत गहरी खोज की, और फ्रायड को खुद भी मुसीबत पड़ी। क्योंकि जिंदगीभर से कहता था, आदमी जीने के लिए आतुर है। लेकिन बुढ़ापे में उसे समझ में आया कि सिर्फ जीने के लिए आतुर नहीं है। क्योंकि आदमी हजार ऐसे काम कर रहा है, जो गवाही देते हैं कि आदमी मरने को भी आतुर है। आदमी कभी-कभी मरना भी चाहता है। आप अपने ही तरफ सोचेंगे, तो समझ में आएगा।

मनोवैज्ञानिक कहते हैं, ऐसा आदमी खोजना मुश्किल है, जो जिंदगी में दस-पांच बार स्वयं की हत्या का विचार न करता हो। यह दूसरी बात है कि आप हत्या न करते हों, क्योंकि हत्या करने के लिए और सब इंतजाम चाहिए, जो आपके पास न हो। हिम्मत चाहिए, जो न हो। लेकिन हत्या का विचार आदमी करता है। और ऐसा नहीं कि बूढ़े ही करते हैं। छोटे-से बच्चे को बाप जोर से डांट दे और बच्चा अपने भीतर सोचता है, इससे तो मर ही जाऊं। छोटा-सा बच्चा, अभी जो जीवन की यात्रा पर निकला भी नहीं है; उसके भीतर भी मरने का भाव पकड़ता है। वह भी सोचता है, खतम कर दो अपने को, नष्ट कर दो।

अगर मनुष्य के भीतर कोई मरने की वृत्ति न हो, तो इतनी जल्दी मरने का खयाल नहीं आ सकता है। और जो गहरे खोजते हैं, वे कहते हैं कि हम दूसरे को भी मारने के लिए इसलिए उत्सुक हो जाते हैं, क्योंकि हमें डर है कि अगर हम दूसरे को न मारें, तो कहीं अपने को मारना शुरू न कर दें। यह बहुत उलटा लगेगा।

नीत्से से किसी ने पूछा कि तुम सदा हंसते रहते हो, बात क्या है? नीत्से ने कहा, सिर्फ इसलिए हंसता रहता हूं कि कहीं रोने न लगूं। क्योंकि दो के सिवाय कोई उपाय नहीं दिखाई पड़ता। या तो हंसूं, या रोऊं। दो के बीच कोई जगह नहीं है, जहां आदमी खड़ा हो जाए। खड़े होने के लिए जगह नहीं है। या तो हंसूं या रोऊं। तो मैं हंसता ही रहता हूं, कि अगर हंसना रोका, तो फिर रोना पड़ेगा। रोने पर विकल्प बदल जाएगा।

इसलिए हर आदमी दूसरे की हत्या का विचार करता रहता है कि कहीं अपनी हत्या का विचार न करने लगे। और हर आदमी दूसरे को नुकसान पहुंचाने की धारणा बनाता रहता है, ताकि अपने को नुकसान न पहुंचाने लगे। हर आदमी आक्रामक है, ताकि कहीं आत्महिंसा में न लग जाए।

और यह बड़े मजे की बात है, जो लोग आक्रमण छोड़ देते हैं, या जो लोग चेष्टा करके दूसरे की हिंसा छोड़ देते हैं, वे आत्महिंसा में फौरन लग जाते हैं। इसलिए तथाकथित अहिंसा के साधक आत्म-हिंसा में लग जाते हैं, वे अपने को सताने लगते हैं।

यह बहुत मजे की बात है कि जो आदमी दूसरे को सताना छोड़ता है, वह फौरन अपने को सताने के उपाय करने लगता है। दो में से कोई और रास्ता दिखाई नहीं पड़ता।

कृष्ण उसे मूढ़ कहते हैं, जो अपने को सता रहा है। और अपने को सताने के लिए सबसे बड़ी विधि अगर जगत में कोई है, तो वह प्रभु को भूल जाना है।

आप कहेंगे, यह कैसी विधि? छाती में छुरा भोंक लो, ज्यादा तकलीफ होगी। कांटों पर लेट जाओ। जहर पी लो।

नहीं। परमात्मा के विस्मरण से बड़ी तकलीफ इस जगत में कोई भी नहीं हो सकती है। परमात्मा के विस्मरण से बड़ी तकलीफ इसलिए नहीं हो सकती है, क्योंकि परमात्मा के विस्मरण के साथ ही जीवन के सब आनंद की धाराएं अवरुद्ध हो जाती हैं। आदमी जीता भी है मरा हुआ। ध्यान रहे, मर जाना उतना बुरा नहीं है, जितना मरे हुए जीना बुरा है।

सुना है मैंने, ईरान के एक बादशाह का वजीर एक जुर्म में पकड़ा गया। और जुर्म यह था कि उसने कानून के खिलाफ तीन विवाह कर लिए थे और तीनों औरतों को धोखा दिया था। एक ही विवाह कर सकता था, तीन विवाह कर लिए थे और हर स्त्री को धोखा दिया था कि मैं अविवाहित हूं।

यह बात पकड़ गई और सम्राट ने उस वजीर को कहा कि यह तो बहुत ही खतरनाक जुर्म है। अपने न्यायाधीशों से कहा, कठिन से कठिन सजा खोजो। अगर यह भी सजा हो कि इसको फांसी देनी पड़े, तो फांसी दो। लेकिन न्यायाधीशों ने एक सप्ताह विचार किया और कहा कि नहीं, फांसी देने को हम बड़ी कठिन सजा नहीं मानते। हमने और दूसरी सजा खोजी है। बादशाह ने कहा, हैरान करते हो मुझे तुम। फांसी से और कठिन सजा क्या हो सकती है? उन्होंने कहा कि तीनों औरतों के साथ इस आदमी को इकट्ठा रहने दो। तीनों औरतों को साथ रहने दो इसके साथ।

कहते हैं, इक्कीसवें दिन उस आदमी ने आत्महत्या कर ली। और वह चिट्ठी लिखकर रख गया कि यह सजा मुझे तो दी, लेकिन कभी अब किसी और को मत देना। इससे तो फांसी बेहतर थी।

मौत इतनी बुरी नहीं है, जीवन जितना बुरा हो सकता है। जीवन के बुरे होने की संभावना बहुत ज्यादा है। मौत के बुरे होने की संभावना बहुत ज्यादा नहीं है। मौत तो सिर्फ द्वार का बंद हो जाना है।

जीवन, प्रभु से हीन, ऐसा जीवन है, जिसमें चारों तरफ हमारे सब तरह के दुश्मन इकट्ठे हो जाते हैं। उसके पास तो तीन औरतें थीं; हमारे पास तीन हजार औरतें इकट्ठी हो जाती हैं। औरतों का मतलब, क्रोध इकट्ठा हो जाता है, बेईमानी इकट्ठी हो जाती है, चोरी इकट्ठी हो जाती है, हिंसा इकट्ठी हो जाती है, सब उपद्रव इकट्ठे हो जाते हैं। और उनके बीच हमें जीना पड़ता है।

एक प्रभु का साथ छूटा कि चारों तरफ जीवन में सिवाय उपद्रव के और कुछ नहीं बचता। क्योंकि जो आदमी प्रभु की तरफ पीठ करेगा, उसने अपने आप अंधेरे की तरफ आंखें कर लीं। अब वह अंधेरे में, और अंधेरे में, और अंधेरे में उतरेगा। जिसने प्रभु का साथ छोड़ा, उसने अपने हाथ से दुर्गुणों को निमंत्रण दिया। जिसने प्रभु का साथ छोड़ा, उसने अपने हाथ से गङ्ढों में, पतन में और नर्कों में उतरने का इंतजाम किया।

तो कृष्ण कहते हैं, मूढ़ हैं जगत में ऐसे, दुष्टजन हैं वे, नासमझ हैं, असात्विक भावनाओं से भरे हुए हैं, वे मेरी प्रार्थना नहीं करते।

लेकिन आपसे मैं एक बात कह दूं। इससे आप यह मत समझना कि जो-जो प्रार्थना करते हैं, वे इन मूढ़ों में नहीं हैं। क्योंकि जरूरी नहीं है कि आप प्रार्थना करते वक्त प्रार्थना ही कर रहे हों। प्रार्थना करनी बड़ी कठिन है। इसलिए आप एकदम निश्चिंत होकर मत बैठ जाना कि यह किसी और की बात हो रही है, मैं तो रोज मंदिर जाता हूं। मैं तो प्रार्थना करता हूं। जरूरी नहीं है, आपकी प्रार्थना प्रार्थना हो।

मैंने सुना है, एक स्त्री के पास एक तोता था, नर तोता; लेकिन वह गाली-गलौज सीख गया था। जिससे खरीदा था, वह एक होटल थी और वहां सब तरह के लोग आते-जाते थे। वह गाली-गलौज सीख गया था। वह स्त्री बड़ी परेशान थी, क्योंकि घर में मेहमान आते और वह बेहूदी बातें बोल देता। उसने अपने पड़ोस के पादरी को, चर्च के पादरी को कहा कि कुछ उपाय करो। तुम तो सब कुछ जानते हो। आदमियों तक को बदल देते हो, तो यह तो तोता है। फिर से दोहराऊं, उसने कहा, आदमियों तक को बदल देते हो, तो यह तो तोता है। इसे थोड़ा उपदेश दो कि यह बदल जाए।

पादरी ने कहा, यह तो मेरी भाषा न समझेगा, लेकिन मेरे पास एक मादा तोता है। वह दिन-रात प्रार्थना किया करती है। चौबीस घंटे चर्च में उसकी प्रार्थना गूंजती रहती है। तुम इसे ले आओ; दोनों को सत्संग में रख दें।

सत्संग का असर तो पड़ता ही है। निश्चित पड़ता है। लेकिन किस तरफ से पड़ेगा, कहना मुश्किल है। गुरु शिष्य को ले जाएंगे स्वर्ग की तरफ, कि शिष्य गुरु को ले जाएंगे नर्क की तरफ, कहना मुश्किल है! प्रभाव तो जरूर पड़ता है।

खैर, स्त्री को बात जंच गई। वह अपने नर तोते को ले आई। एक ही पिंजरे में दोनों को बंद कर दिया। दोनों दूर बैठ गए; देखें कि क्या चर्चा चलती है! मादा तोता थोड़ी देर चुपचाप बैठी रही; नर तोता भी थोड़ी देर चुपचाप बैठा रहा। फिर उस नर तोते ने कहा, क्या खयाल है? हे डियर बेबी, व्हाट डू यू थिंक अबाउट लविंग–प्रेम के बाबत क्या खयाल है? उस मादा तोते ने कहा, इट इज़ ओ के किड। बिलकुल ठीक। व्हाट डू यू थिंक, आई वाज प्रेइंग फार आल दीज इयर्स? क्या सोचते हो तुम, मैं प्रार्थना किसलिए कर रही थी इतने वर्षों से? एक तोता मिल जाए।

यह प्रार्थना जो वर्षों से चल रही थी चर्च में उस मादा तोते की, वह यही प्रार्थना थी कि कहीं से एक तोता मिल जाए। चर्च का पादरी धोखे में था। अधिक चर्चों के पादरी धोखे में है कि जो लोग प्रार्थना करने आते हैं, वे किसलिए आ रहे हैं।

असली सवाल यह नहीं है कि आप प्रार्थना करते हो; असली सवाल यह है कि किसलिए करते हो। अगर परमात्मा के अतिरिक्त और कोई भी मांग बीच में है, तो वह प्रार्थना परमात्मा की प्रार्थना नहीं है। अगर बीच में धन है, पद है, यश है, स्वास्थ्य है, सुख है, तो आपको परमात्मा से कोई भी प्रयोजन नहीं है। आपको प्रयोजन अपने सुख से है। प्रार्थना करते हैं कि शायद परमात्मा से मिल जाए, तो परमात्मा को भी एक इंस्ट्रूमेंट, एक साधन–सच, परमात्मा से भी थोड़ी सेवा लेने की उत्सुकता है, और कुछ भी नहीं है।

प्रार्थना कर लेने से प्रार्थना नहीं हो जाती। तो इसलिए जरूरी नहीं है कि मूढ़ लोग प्रार्थना न करते हों। मूढ़ लोग प्रार्थना करते हैं, लेकिन प्रार्थना कभी नहीं करते। कुछ मांग ही होगी उनकी, छोटी-मोटी, क्षुद्र। और कभी सोचेंगे भी नहीं कि क्या मांगने परमात्मा के सामने खड़े हैं!

असल में कुछ भी मांगने अगर कोई परमात्मा के सामने खड़ा है, तो प्रार्थना नहीं होगी; क्योंकि प्रार्थना मांग नहीं है। प्रार्थना का अर्थ ही है, बिना मांगा धन्यवाद; मांग नहीं है। प्रार्थना बड़ी उलटी चीज है। वह किसी चीज की मांग नहीं है; बल्कि जो परमात्मा ने दिया है, उसके लिए धन्यवाद है, अनुग्रह का भाव है, ग्रेटिटयूड है। जितना दिया है, वह इतना ज्यादा है कि उसे धन्यवाद देने की बात है, वह थैंक्स गिविंग।

लेकिन उसको धन्यवाद देने हम कभी नहीं जाते कि तूने हमें इतना दिया है। हम जाते हैं कहने कि क्या मारे डाल रहा है! कुछ भी नहीं है पास। लड़के की नौकरी नहीं लग रही। लड़की की शादी नहीं हो रही। परीक्षा में फेल हुए जा रहे हैं। धंधा बिगड़ा जा रहा है। सब इस तरह की बातें लेकर हम परमात्मा के सामने जाते हैं।

मूढ़ भी प्रार्थना करता है, लेकिन कृष्ण उसकी प्रार्थना को प्रार्थना नहीं मानते। क्योंकि वह परमात्मा को नहीं भजता, वह परमात्मा के बहाने जगत की चीजों को ही भजता है; वह जगत को ही भजता है।

कठिनाई है। हमारा चित्त जैसा है, वह केवल सांसारिक वस्तुओं को ही भज पाता है। कभी देखा, एक आदमी एक नई कार खरीदने की सोचता है, तो रातभर नींद नहीं आती। करवटें बदलता है, फिर कार दिखाई पड़ने लगती है। फिर करवट बदलता है, फिर कार दिखाई पड़ने लगती है। हजार रंग दिखाई पड़ते हैं, हजार ढंग दिखाई पड़ते हैं। महीनों सो नहीं पाता।

यह जो चित्त है, अगर इसको आप मंदिर में ले जाएं, तो प्रार्थना तो जरूर करेगा, लेकिन इसे दिखाई कार ही पड़ेगी। इसे कुछ और दिखाई नहीं पड़ सकता। चित्त की भाषाएं हैं।

सुना है मैंने, एक आदमी ने एक घोड़ा खरीदा। बेचने वाले ने बहुत दाम बताए। आदमी ने पूछा, इतने दाम की बात क्या है? उसने कहा, यह घोड़ा बहुत अदभुत है। एक तो, यह तूफान की चाल से चलता है। और इससे भी बड़ी बात यह है कि–इसकी चाल तो तेज है ही, तो अक्सर सवार गिर जाता है–अगर कभी तुम गिर जाओ, तो यह तुम्हें वहीं स्थान पर सुलाकर, डाक्टर को भी बुला लाता है। उस आदमी ने कहा, चमत्कार! उसके दिल में भी बहुत दिन से घोड़ा तो लेने का इरादा था। उसने घोड़ा खरीद लिया। दाम भी चुकाए। और उसने सोचा कि पहले दिन प्रयोग करके भी देख लें।

घोड़े पर बैठा। घोड़ा सचमुच तूफान की तरह दौड़ा। और दौड़ा, तो उसने जाकर एक गङ्ढे में उस आदमी को गिराया। जब वह आदमी गिरा, तो उसने सोचा कि आधी बात तो पूरी हो गई, अब आधी देखें। घोड़ा उसे गिराकर फौरन वापस लौटा। उसने सोचा, हैरानी की बात है! और थोड़ी देर में घोड़ा डाक्टर को लेकर आ गया।

फिर दो-दिन बाद जब उस आदमी को होश आया, तो घोड़े का मालिक उसके पास आया और उसने कहा, कहो भाई, संतुष्ट तो हो? उसने कहा, संतुष्ट तो बहुत हूं। हाथ-पैर टूट गए। पर, उसने कहा कि देखा, घोड़ा डाक्टर को बुलाकर लाया। उसने कहा कि बिलकुल लाया। लेकिन एक ही गलती हो गई। वेटरनरी डाक्टर को बुला लाया। उसने कहा, घोड़ा तो घोड़ा ही है। उसको आदमियों के डाक्टर का कोई भी पता नहीं है। वह घोड़ों के डाक्टर को लिवा लाया। तो यह तो तुम्हें पहले ही समझ लेना था! उस बेचने वाले ने कहा, यह तो साफ ही है।

वह जो हम सबकी भाषाएं हैं। घोड़ा ठीक ही है कि वेटरनरी डाक्टर को बुला लाए। वह हमारा जो चित्त है, वह जब प्रार्थना करने जाएगा, तो उसकी अपनी भाषा है; वह वेटरनरी डाक्टर को बुला लाएगा। वह परमात्मा तक नहीं पहुंचेगा। वह उन चीजों तक पहुंच जाएगा, जिन चीजों से उसके संबंध रहे हैं, जिन चीजों से उसका परिचय है, जिन चीजों को उसने चाहा है।

अगर परमात्मा भी मिल जाए अचानक हमारे चित्त को, तो हम वही चीजें मांगेंगे, जो हम मांगते रहे हैं। उस मौके को भी हम खो देंगे। अगर ठीक परमात्मा…। सोचें जरा अपने मन में कि आज रात परमात्मा आपके बिस्तर के पास आकर खड़ा होकर जगाए कि उठिए। क्या चाहिए? तो जरा सोचें अपने मन में। आपको फौरन पता चल जाएगा कि आप क्या मांगेंगे। परमात्मा को कोई मांगेगा, इसमें बहुत संदेह है। क्योंकि जिसने कभी नहीं मांगा उसे, वह अचानक आज रात नहीं मांग पाएगा।

कृष्ण कहते हैं, मूढ़ है वह व्यक्ति। मूढ़ मुझे नहीं भजते हैं। फिर मुझे कौन भजता है? जिज्ञासु, मुमुक्षु, वे सात्विक लोग, वे सदाचरण वाले लोग, बुद्धिमान मुझे भजते हैं।

सच में ही, वही आदमी बुद्धिमान है, जो इस जगत के अवसर का उपयोग प्रभु की झलक पाने में कर ले। उसके अलावा कोई भी बुद्धिमान नहीं है। वही आदमी बुद्धिमान है, जो इस जीवन के अवसर का उपयोग जीवन के परम सत्य की खोज में कर ले। बाकी कोई आदमी बुद्धिमान नहीं है। बाकी सभी बुद्धिहीन हैं।

जीवन उन चीजों को इकट्ठा करने में भी गंवाया जा सकता है, जिन चीजों को पाकर कुछ भी नहीं मिलता। और हम सब वैसा ही गंवाते हैं। जीवन उन चीजों की खोज में नष्ट किया जा सकता है, जिन्हें हम न पाएंगे, तो भी दुखी होंगे; और पा लेंगे, तो भी दुखी होंगे।

सिकंदर जीत ले सारी दुनिया, तो भी सुखी नहीं हो पाया। क्योंकि सारी दुनिया को जीतने से सुख का कोई भी संबंध नहीं है। न जीते, तो दुखी हो। जीतने की कोशिश करे, तो परेशान हो। और फिर जीत ले, तो जीत से कुछ न पाए। सब मिल जाए–जो हमारा मन चाहता है, सब मिल जाए–तो भी हम अचानक पाएंगे कि भीतर सब कुछ खाली रह गया है। कुछ मिला नहीं। जीवन के गहरे मूल्य तृप्त नहीं हुए। और जीवन की गहरी प्यास, प्यास ही रह गई; और जीवन की असली भूख, भूख ही रह गई, और प्राण अब भी पुकार रहे हैं किसी वर्षा के लिए। बादल बहुत बरसे, बहुत गर्जन हुआ, बिजलियां चमकीं, सागर भर गए नीचे। लेकिन वह अमृत नहीं बरसा, जिसकी तलाश थी।

परमात्मा के अतिरिक्त वह अमृत कहीं और नहीं है। परमात्मा से क्या मतलब?

परमात्मा से मतलब है, जीवन का जो गहनतम सत्य है, वही। जन्म के पहले भी जो मेरे भीतर था, और मृत्यु के बाद भी जो मेरे भीतर होगा, वही। जब मैं जागता हूं, तब भी जो मेरे भीतर है; और जब मैं सो जाता हूं, तब भी मेरे भीतर होता है–वही। जब मैं बच्चा हूं तब, और जब मैं जवान हूं तब, और जब बूढ़ा हो जाऊंगा तब, तब भी जो नहीं बदलता मेरे भीतर–वही। वह जो सारे परिवर्तन के बीच शाश्वत है; वह जो सारी उथल-पुथल के बीच स्थिर है; वह जो सारी गतियों के बीच, सारी आंधियों के बीच अडिग है; वह जो सब जीवन और मृत्यु के बीच सदा एक-सा है–उस एक की खोज परमात्मा की खोज है।

निश्चित ही, बुद्धिमान वही है, वाइज वही है, मेधावी वही है, जो इस जीवन से उसे पा ले।

हम करीब-करीब ऐसे लोग हैं कि सागर के तट पर गए हों, अवसर मिला हो, और सागर में हीरे पड़े हों, लेकिन हम किनारे पर रेत में जो सीप और चमकदार पत्थर पड़े रहते हैं, उनको बीनने में बिता रहे हैं। वह हम सब बीनकर इकट्ठा ढेर कर लेंगे। जीवन हाथ से खो जाएगा! ढेर वहीं पड़ा रह जाएगा।

क्या खोज रहे हैं हम? हमारी खोज वैसी है, रामकृष्ण कहा करते थे कि चील अगर आकाश में भी उड़ रही हो, तब भी तुम यह मत सोचना कि वह आकाश में उड़ती है। उसकी नजर तो नीचे कचरेघरों में कोई मांस का टुकड़ा पड़ा हो, कोई हड्डी पड़ी हो, उस पर लगी रहती है। आकाश में उड़ती चील के धोखे में मत आ जाना कि वह आकाश में उड़ रही है, इसलिए आकाश में उड़ रही होगी। उसका चित्त तो किसी हड्डी पर लगा रहता है, जो किसी कचरेघर पर पड़ी होगी।

जीवन का विराट आकाश मिलता है हमें, जिसमें हम परमात्मा के आलिंगन को उपलब्ध हो सकते हैं। बड़ी संपदा हमारी हो सकती है, जिसका कोई अंत नहीं। कुबेर के खजाने चुक-चुक जाएं और सोलोमन के खजाने छोटे पड़ जाएं। सीपियां सिद्ध होते हैं। नदी के किनारे बीने गए कंकड़-पत्थर रंगीन, बच्चों के खिलौने! लेकिन एक और संपदा है, जिसे पाते ही जीवन उस रौनक को उपलब्ध होता है, जिसका कोई अंत नहीं है; जिसे मृत्यु नहीं बुझाती; जिसे अंधेरा नहीं मिटाता; जिसे दुख नहीं मिटाता; जिसे पीड़ा नहीं छूती; जो अस्पर्शित रह जाती है। उस संपदा को पाया जा सकता है इसी जीवन में।

निश्चित ही, जो उस दिशा में न चले, उसे कृष्ण कैसे बुद्धिमान कहें? वे कहेंगे, बुद्धिमान हैं वे, वे ही हैं बुद्धिमान, जो मुझे भजते हैं।

यह भजने का, प्रभु को स्मरण करने का इतना आग्रह! क्या चाहते हैं? क्या इशारा है उनका? एक छोटी-सी कहानी से समझाने की कोशिश करूं।

सुना है मैंने, एक संन्यासी को उसके गुरु ने कहा कि तू अब यहां न सीख पाएगा। हम जो सिखा सकते थे, सिखाया; लेकिन उसके लिए तू बहरा है। तू यहां से जा और देश की राजधानी में सम्राट के पास पहुंच जा। अगर कुछ सीख सकता है, तो अब वहीं।

वह संन्यासी यात्रा करके सम्राट के द्वार पर पहुंचा। बड़ी मुश्किल में पड़ा। सम्राट को देखा। रात हो गई थी। दरबार भरा था। नर्तकियां नाचती थीं। अर्धनग्न स्त्रियां नाचती थीं। शराब ढाली जा रही थी। सम्राट बीच में बैठा था। उस संन्यासी ने कहा, यहां मुझे सीखने भेजा है! अपने मन में सोचा, अच्छा फंसा! अब कहां भागकर जाऊं? अब इस रात कहां ठहरूंगा?

सम्राट ने कहा, इतने चिंतित मत होओ। इतने बेचैन मत होओ। ठीक जगह ही भेजे गए हो। आओ, विश्राम करो रात। जल्दी क्या है लौट जाने की? दो दिन बाद लौट जाना। वह बहुत घबड़ाया। उसने कहा, मैंने तो आपसे कुछ कहा नहीं! सम्राट ने कहा कि कहने से ही कुछ सुनाई पड़ता हो, ऐसा कहां! तेरे गुरु ने कितना तुझसे कहा, तूने कुछ न सुना। जब कहने से सुनाई न पड़े, तो न कहने से भी सुनाई पड़ सकता है। तू बैठ। तू जल्दी मत कर।

रात भोजन करवाया। भोजन के बाद फिर उस संन्यासी ने कहा, एक बात तो कम से कम बता दें! सम्राट ने कहा, जल्दी क्या है? कल सुबह पूछ लेना। उसने कहा कि नहीं; रातभर नींद न आएगी। यह क्या मजा है! मेरे गुरु ने आपके पास भेज दिया; शराबी के पास। नाच-गान चल रहा है। यह सब क्या उपद्रव है! मैं संन्यासी, मैं ब्रह्मचारी। मुझे यहां कहां भेज दिया! आपके पास किसलिए भेजा है? और आप मुझे क्या खाक सिखाएंगे? अभी खुद ही तो सीखे नहीं!

उस सम्राट ने कहा कि मैं तो भजन करता रहता हूं। उसने कहा, क्या खाक भजन होता होगा! यह भजन हो रहा है? शराब ढल रही है; प्याले सरक रहे हैं; स्त्रियां नाच रही हैं–यह भजन हो रहा है? तुम मुझे अभी चले जाने दो। ऐसा भजन मुझे नहीं सीखना। सम्राट ने कहा कि यह तो भजन नहीं है। लेकिन भजन जारी है। खैर, कल सुबह हम बात कर लेंगे।

बहुत सुंदर बिस्तर पर उसे सुलाया, जैसे पर वह कभी न सोया हो। बहुत सुखद इंतजाम किया। सब सुविधा की; जो सम्राट के पास श्रेष्ठतम था।

सुबह जब उठा संन्यासी, सम्राट ने पूछा, प्रसन्न तो हैं। कोई अड़चन, कोई तकलीफ तो न थी? उस संन्यासी ने कहा, तकलीफ तो कोई न थी, आराम तो पूरा था। लेकिन नींद नहीं लगी। नींद क्यों नहीं लगी? कहा कि आप भी अजीब आदमी हैं। अच्छा बिस्तर दिया। सब दिया। यह ऊपर एक नंगी तलवार एक धागे से काहे के लिए बांधकर लटका दी? तो रातभर प्राण संकट में रहे। आंख बंद करूं, तो तलवार दिखाई पड़े। पता नहीं धागा कब टूट जाए! और पतला धागा! करवट लूं, तो प्राण संकट में, कि पता नहीं, वह तलवार कब टूट जाए। रातभर एक पल सो नहीं सका।

सम्राट ने कहा, मैं तुझे कहता हूं कि इसे ऐसा कह कि रातभर तूने तलवार का भजन किया। बिस्तर लुभा न सके। चारों तरफ इत्र की खुशबुएं थीं, वे सुला न सकीं। कुछ सुला न सका। तलवार का भजन जारी रहा। तुझसे मैं कहता हूं, स्त्रियां नाचती थीं, माना कि वे अर्धनग्न थीं; शराब ढलकाई जाती थी, माना कि लोग शराब पी रहे थे; लेकिन तुझे मैं कहता हूं, ठीक तलवार की तरह मौत मेरे ऊपर लटकी है। तेरे ऊपर ही कल रात लटकी थी, ऐसा नहीं; सबके ऊपर लटकी है; कच्चे धागे में ही लटकी है। तुझे दिखाई पड़ रही थी, क्योंकि मैंने प्रत्यक्ष लटका दी थी। मौत की तलवार दिखाई नहीं पड़ती; सबके ऊपर लटकी है।

पर, उसने कहा, इससे भगवान के भजन का क्या मतलब? जिस तरह मैं तलवार का भजन करता रहा रातभर, अगर आपको मौत इस तरह लटकी हुई दिखाई पड़ती है, तो आप मौत का भजन कर रहे होंगे?

उस सम्राट ने कहा, नहीं; जिस दिन मौत प्रतिपल दिखाई पड़ने लगे, जिस दिन मौत चारों तरफ दिखाई पड़ने लगे, जिस दिन शरीर का सब कुछ मरेगा, यह दिखाई पड़ने लगे; जिस दिन पदार्थ के जगत में सब विनष्ट होगा, यह दिखाई पड़ने लगे–उस दिन उसका स्मरण शुरू हो जाता है, जो विनष्ट नहीं होता, जो अमृत है। मौत तो तलवार की तरह लटकी है, लेकिन मेरे हृदय में अब मौत का स्मरण नहीं है, क्योंकि मौत तो है। अब मेरे मन में उसका स्मरण है, जो मौत के भी पार है, और जो मौत से भी नष्ट नहीं होता; जो मौत के बीच से भी गुजर जाता है, अस्पर्शित।

प्रभु-स्मरण का अर्थ है, अमृतत्व का स्मरण, चैतन्य का स्मरण, परम सत्ता का स्मरण।

और वह स्मरण ऐसा नहीं है कि आप पांच क्षण को घर में बैठकर दोहरा लें और हो गया। वह स्मरण ऐसा है कि आपके रोएं-रोएं में, श्वास-श्वास में, हृदय की धड़कन-धड़कन में प्रवेश कर जाए। उठें, तो उस भजन में; सोएं, तो उस भजन में; चलें, तो उस भजन में–तो बुद्धिमत्ता है।

कृष्ण कहते हैं, दो तरह के लोग हैं इस जगत में। मूढ़जन हैं, जो मेरी तरफ आंख नहीं उठाते, जब कि मैं उन्हें निहाल कर दूं। बुद्धिमान हैं, जो मेरे अतिरिक्त और कहीं नजर नहीं ले जाते। क्योंकि मेरी तरफ नजर उठी कि फिर और कोई जगह देखने योग्य नहीं रह जाती। मेरी तरफ नजर उठी कि फिर और कुछ पाने योग्य नहीं रह जाता। मुझे जिन्होंने पा लिया, उन्होंने सब पा लिया है।

यह कृष्ण कह रहे हैं अर्जुन से कि अर्जुन समझे, कि मूढ़ के जगत से यात्रा करे बुद्धिमान के जगत की तरफ।

कोई मूढ़ ऐसा नहीं है कि बुद्धिमान न हो सके; और कोई बुद्धिमान ऐसा नहीं है कि कभी न कभी मूढ़ न रहा हो। सब संतों का अतीत है, और सब पापियों का भविष्य है। और पाप से गुजरे बिना कोई संतत्व तक नहीं पहुंचा है। और संतत्व तक जो भी पहुंचा है, पाप की अग्नि से निकला है।

इसलिए कभी ऐसा मन में सोचकर मत बैठ जाना कि मैं तो मूढ़ हूं। दुनिया में कोई मेधा नहीं है, जो मूढ़ता से न गुजरी हो। वह अनिवार्य शिक्षा है। और दुनिया में कोई ऐसा मूढ़ नहीं है, जिसके भीतर वह बीज न छिपा हो, जो मेधा बन जाए, प्रतिभा बन जाए; खिल जाए और बुद्धिमानी हो जाए। फर्क सिर्फ रूपांतरण का है, एक छलांग का। एक अबाउट टर्न, एक पूरा घूम जाना। जिस तरफ मुंह है, उस तरफ पीठ; और जिस तरफ पीठ है, उस तरफ मुंह हो जाना। बस, इतने में ही मूढ़ बुद्धिमान हो जाता है। इतनी-सी घटना से मूढ़ बुद्धिमान हो जाता है। जड़ता गिर जाती है, और चैतन्य का जन्म हो जाता है। पर्दे हट जाते हैं, और रहस्य के द्वार खुल जाते हैं।

लेकिन हम हिप्नोटाइज्ड हैं, हम बिलकुल सम्मोहित हैं चीजों से। हम इस बुरी तरह से सम्मोहित हैं, जिसका कोई हिसाब नहीं! हाथ कुछ नहीं लगता; अनुभव तक नहीं लगता हाथ। जिंदगीभर इस उपद्रव के बाद अनुभव भी हाथ नहीं लगता।

सुना है मैंने कि एक आदमी ने नई-नई किसी के साथ साझेदारी की। कोई पूछता था कि फिर कोई साझेदार मिल गया तुम्हें? क्योंकि वह आदमी कई साझेदारों को धोखा दे चुका है। फिर कोई साझेदार मिल गया तुम्हें? उसने कहा, फिर कोई साझेदार मिल गया। जमीन पर नासमझों की कोई कमी नहीं है। लेकिन कोई भी साझेदार मेरे साथ रहकर नुकसान में कभी नहीं पड़ता। उस आदमी ने कहा, यह तुम क्या कह रहे हो! हमने तो अब तक यही सुना कि जो भी तुम्हारे साथ रहता है, नुकसान में पड़ता है।

उसने कहा, तुम समझो, फिर तुम कभी ऐसा न कहोगे। अब यह जो नया साझीदार है, पूरी पूंजी लगा रहा है। पूरी पूंजी वह लगा रहा है, पूरा अनुभव मैं लगा रहा हूं। फिफ्टी-फिफ्टी समझो। आधा मेरा है, आधा उसका। अनुभव मेरा, धन उसका। और तुमसे मैं कहता हूं कि पांच साल में अनुभव उसके पास होगा और धन मेरे पास। लेकिन तुम समझते हो कि मैं ही फायदे में रहूंगा, वह फायदे में नहीं रहेगा? अनुभव!

लेकिन हम जिंदगी में कई बार जीवन का धन गंवा चुके और अब तक उस अनुभव को उपलब्ध नहीं हुए, जो वह साझीदार कह रहा था कि पांच साल में मेरा मित्र हो जाएगा। हमने न मालूम जीवन के धन को कितनी बार गंवाया है। हम किसी अनुभव को उपलब्ध नहीं हुए। हम फिर वही करते हैं। हम फिर वही करते हैं। हम फिर वही करते चले जाते हैं। जैसे अनुभव जैसी कोई चीज हमारे जीवन में पैदा ही नहीं होती। कल भी वही किया, परसों भी वही किया। पिछले वर्ष भी वही किया था। आने वाले वर्षों में भी आप वही करेंगे। क्या मतलब है इसका? कहीं कोई चीज है, जैसे बिलकुल हम विक्षिप्त की तरह सम्मोहित हैं संसार के साथ। बिलकुल बंधे हैं पागल की तरह; आब्सेस्ड हैं। नजर नहीं हटती, जैसे किसी ने नजर बांध दी हो; वशीकरण हो गया हो।

इसलिए कृष्ण कहते हैं कि मेरी माया में डूबे हुए, मेरे सम्मोहन में डूबे हुए; प्रकृति की दुस्तर माया में डूबे हुए मूढ़जन, मेरा भजन नहीं कर पाते हैं। हिप्नोटाइज्ड बाई नेचर। बिलकुल हिप्नोटाइज्ड हैं; प्रकृति के गुणों से सम्मोहित हो गए हैं। और मेरा स्मरण नहीं कर पाते। बस, प्रकृति का ही स्मरण करते हैं। उन्हें कुछ मिलने वाला नहीं है। लेकिन अगर अनुभव भी मिल जाए, तो बहुत। और जिसे अनुभव मिल जाता है, वह तत्काल रूपांतरित हो जाता है।

एक मित्र मेरे पास आए थे, वे कह रहे थे कि दूसरी शादी करने का विचार कर रहा हूं। मैंने उनसे कहा कि जहां तक मुझे याद आती है, तुम छः महीने पहले भी आए थे, जब तुम्हारी पत्नी जिंदा थी, तब तुम तलाक देने का सोचते थे। उन्होंने कहा, हां, इस स्त्री को तो तलाक देने की सोचता था, ऊब गया था। और मैंने कहा, जहां तक मुझे याद है, तुमने कहा था कि अगर मेरा किसी तरह इस स्त्री से तलाक हो जाए, तो मैं संन्यास ही ले लूं। लेकिन अब यह स्त्री अपने आप विदा हो गई। अब तुम दूसरी शादी की क्यों सोच रहे हो?

तो मैंने उन्हें कहा कि किसी मनोवैज्ञानिक से भी कोई यही पूछ रहा था, तो उसे मनोवैज्ञानिक ने कहा कि इससे मालूम पड़ता है, यह अनुभव के ऊपर आशा की विजय है। अनुभव के ऊपर आशा की विजय!

अनुभव तो यही है। वह आदमी कह रहा है कि अब मैं बचना चाहता हूं किसी तरह उस कलह से, जिसका नाम शादी था; उस उपद्रव से। लेकिन फिर करने का मन हो रहा है। अनुभव के ऊपर आशा जीत रही है फिर। इस आशा में कि शायद दुबारा वैसा न हो।

इसी आशा में हम हजारों जन्म गंवा देते हैं। फिर खोजेंगे धन; शायद इस बार धन मिल जाए। फिर खोजेंगे पद; शायद इस बार पद मिल जाए। फिर खोजेंगे मकान; शायद इस बार मकान मिल जाए। लेकिन कभी मकान नहीं मिलता, मौत मिलती है, कब्र मिलती है। और कभी धन नहीं मिलता; ढेर जरूर लग जाता है धन का; भीतर आदमी निर्धन का निर्धन रह जाता है। कभी पद नहीं मिलता; सब पद मिल जाते हैं; भीतर की हीनता उतनी की उतनी रह जाती है; उसमें कहीं कोई अंतर नहीं पड़ता।

मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि राजनीतिज्ञ जितने ज्यादा इनफीरिआरिटी कांप्लेक्स से, हीनता की ग्रंथि से पीड़ित होते हैं, इतना कोई भी पीड़ित नहीं होता है। सच तो यह है कि हीनता की ग्रंथि से पीड़ित होते हैं, इसीलिए पदों की तलाश पर निकलते हैं।

लेनिन के पैर, कुर्सी पर बैठता था, साधारण कुर्सी पर, तो जमीन तक नहीं पहुंचते थे। ऊपर का हिस्सा बड़ा था, नीचे का हिस्सा छोटा था। मनोवैज्ञानिक कहते हैं–विशेषकर एडलर–कि लेनिन यह दिखाने के लिए कि मैं कुछ हूं…! वह जो छोटे पैर थे, उनकी हीनता मन में उसको भारी थी।

हिटलर ना-कुछ था। फौज में एक साधारण से सिपाही की तरह उसे निकाला गया था। वह दिखाने को उत्सुक हो गया कि मैं भी कुछ हूं।

जिन लोगों के भीतर बहुत हीनता की ग्रंथि है, वे किसी बड़े पद पर खड़े होकर दुनिया को दिखाना चाहते हैं, हम कुछ हैं, समबडी। लेकिन उससे कोई अंतर नहीं पड़ता। हीनता की ग्रंथि भीतर रहती है, सोना ऊपर सज जाता है; पद ऊपर हो जाते हैं; रेशम लग जाता है; मखमल लग जाती है; गोटा-सितारा लग जाता है। वह भीतर जो हीन आदमी था, हीन का हीन बना रह जाता है।

लेकिन कितने ही अनुभव के बाद भी हमारे हाथ अनुभव की संपदा नहीं लगती। क्योंकि अनुभव की संपदा लग जाए, तो वह जो सम्मोहन है प्रकृति का, वह तत्काल टूट जाता है। और प्रकृति का सम्मोहन टूटा कि आपकी आंखें उस तरफ उठती हैं, जिस ओर प्रभु है।

सम्मोहन से बंधे रहना मूढ़ता है। प्रभु की ओर आंखों का उठ जाना, उसका भजन शुरू हो जाए, उसका नर्तन शुरू हो जाए, उसका कीर्तन भीतर जग उठे, जीवन एक नृत्यऐ बन जाए–प्रभु को समर्पित, उसके चरणों में झुका हुआ–तो परम आनंद की उपलब्धि होती है। लेकिन वह सम्मोहन टूटे, तभी संभव है।

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