शब्द ही हमारे कर्मों का भविष्य में परिणाम बनते हैं :- भगवान श्री कृष्ण

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चंडीगढ़ : 15 अप्रैल:- आरके शर्मा विक्रमा प्रस्तोता:– इंसान जो बोलता है वह दिमाग से मिलता है। बहुत कम लोग विवेक से बोलते हैं। जब लोग दिमाग ( बुद्धि  ) और विवेक  से बोलेंगे तभी शब्द सफल सार्थक और स्नेही ही होंगे। हमारे शब्द ही हमारे कर्मों का परिणाम बनते हैं। अतः हर बात बहुत विचार और विवेक के साथ कहनी चाहिए ।भले ही सामने वाले को उस वक्त समझ ना भी आए। लेकिन बाद में समझने पर उसे आप पर गर्व होना चाहिए और खुद के लिए पश्चाताप।।

महाभारत के युद्ध के बाद का सार रुपी प्रसंग समझें।।

18 दिन के युद्ध ने द्रोपदी की उम्र को 80 वर्ष जैसा कर दिया था शारीरिक रूप से भी और मानसिक रूप से भी।

उसकी आंखे मानो किसी खड्डे में धंस गई थी, उनके नीचे के काले घेरों ने उसके रक्ताभ कपोलों को भी अपनी सीमा में ले लिया था। श्याम वर्ण और अधिक काला हो गया था ।

युद्ध से पूर्व प्रतिशोध की ज्वाला ने जलाया था और युद्ध के उपरांत पश्चाताप की आग तपा रही थी । ना कुछ समझने की क्षमता बची थी ना सोचने की ।

कुरूक्षेत्र मेें चारों तरफ लाशों के ढेर थे । जिनके दाह संस्कार के लिए न लोग उपलब्ध थे न साधन । शहर में चारों तरफ विधवाओं का बाहुल्य था पुरुष इक्का-दुक्का ही दिखाई पड़ता था अनाथ बच्चे घूमते दिखाई पड़ते थे और उन सबकी वह महारानी द्रौपदी हस्तिनापुर केे महल मेंं निश्चेष्ट बैठी हुई शूूूून्य को ताक रही थी।

तभी कृष्ण कक्ष में प्रवेश करते हैं ! महारानी द्रौपदी की जय हो ।

द्रौपदी कृष्ण को देखते ही दौड़कर उनसे लिपट जाती है कृष्ण उसके सर को सहलातेे रहते हैं और रोने देते हैं थोड़ी देर में उसे खुद से अलग करके समीप के पलंग पर बिठा देते हैं।

द्रोपदी:– यह क्या हो गया सखा ऐसा तो मैंने नहीं सोचा था।

कृष्ण:– *नियति बहुत क्रूर होती है पांचाली वह हमारे सोचने के अनुरूप नहीं चलती हमारे कर्मों को परिणामों में बदल देती है।*

*तुम प्रतिशोध लेना चाहती थी और तुम सफल हुई द्रौपदी ! तुम्हारा प्रतिशोध पूरा हुआ । सिर्फ दुर्योधन और दुशासन ही नहीं सारे कौरव समाप्त हो गए तुम्हें तो प्रसन्न होना चाहिए !*

द्रोपदी:– सखा तुम मेरे घावों को सहलाने आए हो या उन पर नमक छिड़कने के लिए।

कृष्ण:– नहीं द्रौपदी मैं तो तुम्हें वास्तविकता से अवगत कराने के लिए आया हूं । *हमारे कर्मों के परिणाम को हम दूर तक नहीं देख पाते हैं और जब वे समक्ष होते हैं तो हमारे हाथ मेें कुछ नहीं रहता ।*

द्रोपदी:– तो क्या इस युद्ध के लिए पूर्ण रूप से मैं ही उत्तरदायी हूं भगवन ?

कृष्ण:– *नहीं द्रौपदी तुम स्वयं को इतना महत्वपूर्ण मत समझो । लेकिन तुम अपने कर्मों में थोड़ी सी भी दूरदर्शिता रखती तो स्वयं इतना कष्ट कभी नहीं पाती।*

द्रोपदी:– मैं क्या कर सकती थी भगवन ?

कृष्ण:– *जब तुम्हारा स्वयंबर हुआ तब तुम कर्ण को अपमानित नहीं करती और उसे प्रतियोगिता में भाग लेने का एक अवसर देती तो शायद परिणाम कुछ और होते !*

*इसके बाद जब कुंती ने तुम्हें पांच पतियों की पत्नी बनने का आदेश दिया तब तुम उसे स्वीकार नहीं करती तो भी परिणाम कुछ और होते ।*

*उसके बाद तुमने अपने महल में दुर्योधन को अपमानित किया वह नहीं करती तो तुम्हारा चीर हरण नहीं होता तब भी शायद परिस्थितियां कुछ और होती ।*

*हमारे शब्द भी हमारे कर्म होते हैं द्रोपदी और हमें अपने हर शब्द को बोलने से पहले तोलना बहुत जरूरी होता है अन्यथा उसके दुष्परिणाम सिर्फ स्वयं को ही नहीं अपने पूरे परिवेश को दुखी करते रहते हैं ।*

अब तुम हस्तिनापुर की महारानी हो और इस समय हस्तिनापुर बहुत कष्ट में है तुम्हें महाराज युधिष्ठिर की निराशा को समाप्त करके उन्हे गतिशील करना होगा *हस्तिनापुर के पुनरुद्धार का कार्य तीव्र गति से करना होगा उठो और अपने कर्म लग जाओ यही प्रकृति का संकेत है ।*

*हमें कुछ कहते वक्त अपने शब्दों का चयन होशियारी और समझदारी से करना चाहिये*।

*साथ ही इस बात का अनुमान भी हमें होना चाहिए कि उसका परिणाम क्या निकलेगा.*

*अगर हम यह अनुमान लगाने में सक्षम होंगे, तो हम आसानी से विचार कर सकते है कि हमें क्या बोलना चाहिए और क्या नहीं बोलना चाहिए.*

*बोलने की कला और व्यवहार कुशलता के बगैर प्रतिभा हमेशा हमारे काम नहीं आ सकती. शब्दों से हमारा नजरिया झलकता है।*

शब्द दिलों को जोड़ सकते है, तो हमारी भावनाओ को चोट भी पहुंचा सकते है और रिश्तों में दरार भी पैदा कर सकते है. सोच कर बोले, न की बोल के सोचे. समझदारी और बेवकूफी में यही बड़ा फर्क है।

कर्म ने धर्म और धर्म में ही कर्म को समझने वाले धर्मरती पंडित रामकृष्ण शर्मा जी के अनुसार सच्चा बुद्धिमान और विवेकशील व्यक्ति कभी भी अपने शब्दों से किसी का अहित और ना ही किसी को आहत कर सकता है। और बुद्धि-विवेकी व्यक्ति हमेशा ही दूसरों को मानसिक पीड़ाएं पहुंचाने में ही अपनी कामयाबी देखता है। और जीवन पर्यंत दुखों की कगार पर खड़ा रहता है। अतः हमारे कर्म हमेशा ही धर्म के दायरे में होने चाहिए। और हमारा धर्म ऐसे कार्यों की परिपाटी से हमें परिपूर्ण करता रहे । तभी जीवन का सार्थक सार सफलता का सबब बनेगा।

जय श्री कृष्णा ।।।।। साभार व्हाट्सएप यूजर से।

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