अंगारकी चतुर्थी का व्रत कैसे करें, पूजा विधि, मुहूर्त और कथा:पंडित कृष्ण मेहता

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चंडीगढ़:13 सितंबर:- आरके विक्रमा शर्मा/ करण शर्मा/ अनिल शारदा प्रस्तुति:—-इन दिनों श्राद्ध पक्ष जारी है और इसी बीच अंगारकी संकष्‍टी चतुर्थी पड़ रही है। आश्विन मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्थी को विघ्नराज संकष्टी चतुर्थी भी कहा जाता है। इस वर्ष 13 सितंबर 2022, दिन मंगलवार को अंगारकी संकष्‍टी गणेश चतुर्थी व्रत मनाया जा रहा है। गणेशोत्सव के समापन के बाद यह अंगारकी चतुर्थी 13 सितंबर 2022 को मनाई जा रही है।

शास्त्रों के अनुसार अंगारकी चतुर्थी व्रत जीवन के हर क्षेत्र में सफलता के लिए बहुत लाभदायी माना गया है। इस व्रत में श्री गणेश को सबसे पहले याद किया जाता है। इस संबंध में ऐसी मान्यता है कि अंगारकी चतुर्थी का व्रत करने से पूरे सालभर के चतुर्थी व्रत का फल मिलता है। घर-परिवार की सुख-शांति, समृद्धि, प्रगति, चिंता व रोग निवारण के लिए मंगलवार के दिन आने वाली चतुर्थी का व्रत किया जाता है।

इस चतुर्थी के संबंध में पौराणिक जानकारी के अनुसार भगवान गणेश ने अंगारक (मंगल देव) की कठिन तपस्या से प्रसन्न होकर उन्हें वरदान देकर कहा था कि जब भी मंगलवार के दिन चतुर्थी पड़ेगी तो उसे अंगारकी चतुर्थी के नाम से जाना जाएगा। अत: इस दिन श्री गणेश के साथ-साथ मंगल देव का पूजन करने का विशेष महत्व है।

वैसे श्री गणेश चतुर्थी हर महीने में 2 बार आती है। पूर्णिमा के बाद आने वाली चतुर्थी को संकष्टी चतुर्थी कहा जाता है। जब भी यह चतुर्थी मंगलवार को आती है, तो उसे अंगारकी चतुर्थी कहते हैं। दूसरी चतुर्थी को विनायकी चतुर्थी कहा जाता है। इस बार मंगलवार के दिन वृद्धि, ध्रुव, सर्वार्थ सिद्धि और अमृत सिद्धि इन 4 शुभ योगों का निर्माण हो रहा है। अत: इस चतुर्थी का महत्व अधिक बढ़ गया है। आइए जानें अंगारकी चतुर्थी पूजन के बारे में खास जानकारी

श्री गणेश चतुर्थी शुभ मुहूर्त

आश्विन कृष्ण चतुर्थी तिथि का प्रारंभ- दिन मंगलवार, 13 सितंबर 2022 को सुबह 10.37 मिनट से

चतुर्थी तिथि का समापन- दिन बुधवार, 14 सितंबर 2022 को सुबह 10.23 मिनट पर

उदयातिथि के अनुसार चतुर्थी व्रत 13 सितंबर को ही रखा जाएगा।

चंद्रोदय का समय- रात्रि 08.07 मिनट पर।

शास्त्रों के अनुसार संकष्टी चतुर्थी व्रत के दिन सुबह के समय में शुभ मुहूर्त में पूजा करने के बाद रात्रि में चंद्रोदय के बाद चंद्र दर्शन तथा उनका पूजन करने के बाद ही व्रत का पारण किया जाता है।

पूजा विधि

मंगलवार के दिन आने वाली अंगारकी चतुर्थी के दिन व्रतधारी सबसे पहले स्वयं शुद्ध होकर स्वच्छ वस्त्र पहनें।पूर्व की तरफ मुंह कर आसन पर बैठें।पूजन में सफेद चंदन का प्रयोग करें।

‘ॐ गं गणपतये नम:’ के साथ गणेश जी की प्रतिमा स्थापित करें।

निम्न मंत्र द्वारा गणेश जी का ध्यान करें।

 

‘खर्वं स्थूलतनुं गजेंन्द्रवदनं लंबोदरं सुंदरं

प्रस्यन्दन्मधुगंधलुब्धमधुपव्यालोलगण्डस्थलम्_दंताघातविदारितारिरूधिरै: सिंदूर शोभाकरं

वंदे शैलसुतासुतं गणपतिं सिद्धिप्रदं कामदम।

फिर गणेश जी के 12 नामों का पाठ करें।

गणपर्तिविघ्रराजो लम्बतुण्डो गजानन:।

द्वेमातुरश्च हेरम्ब एकदन्तो गणाधिप:।।

विनायकश्चारुकर्ण: पशुपालो भवात्मज:।

द्वाद्वशैतानि नामानि प्रातरुत्थाय य: पठेत्।।

विश्वं तस्य भवे नित्यं न च विघ्नमं भवेद् क्वचिद्। कोई विशिष्‍ट उपलब्धि की आशा हो तो पूजा में लाल वस्त्र एवं लाल चंदन का प्रयोग करें।

सिर्फ मन की शांति और संतान की प्रगति के लिए पूजन कर रहे हो तो सफेद या पीले वस्त्र धारण करें।

गणेश व्रत कथा- मंगलवार को आश्विन मास के कृष्ण पक्ष की संकष्टी चतुर्थी मनाई जा रही है। इस दिन भगवान श्री कृष्ण तथा बाणासुर की यह कथा पढ़ी जाती है। इस कथा के अनुसार एक समय की बात है बाणासुर की कन्या उषा ने सुषुप्तावस्था में अनिरुद्ध का स्वप्न देखा, अनिरुद्ध के विरह से वह इतनी अभिलाषी हो गई कि उसके चित को किसी भी प्रकार से शांति नहीं मिल रही थी। उसने अपनी सहेली चित्रलेखा से त्रिभुवन के संपूर्ण प्राणियों के चित्र बनवाए।जब चित्र में अनिरुद्ध को देखा तो कहा- मैंने इसी व्यक्ति को स्वप्न में देखा था। इसी के साथ मेरा पाणिग्रहण भी हुआ था। हे सखी! यह व्यक्ति जहां कही भी मिल सके, ढूंढ लाओ। अन्यथा इसके वियोग में मैंने अपने प्राण छोड़ दूंगी। अपनी सखी की बात सुनकर चित्रलेखा अनेक स्थानों में खोज करती हुई द्वारकापुरी में आ पहुंची। चित्रलेखा राक्षसी माया जानती थी, उसने वहां अनिरुद्ध को पहचान कर उसने उसका अपहरण कर लिया और रात्रि में पलंग सहित अनिरुद्ध को उठाकर वह गोधूलि वेला में बाणासुर की नगरी में प्रविष्ट हुई। इधर प्रद्युम्न को पुत्र शोक के कारण असाध्य रोग से ग्रसित होना पड़ा।

अपने पुत्र प्रद्यम्न एवं पौत्र अनिरुद्ध की घटना से कृष्ण जी भी व्याकुल हो उठे। रुक्मिणी भी पौत्र के दुःख से दुखी होकर बिलखने लगी और खिन्न मन से कृष्ण जी से कहने लगी, हे नाथ! हमारे प्रिय पौत्र का किसने हरण कर लिया? अथवा वह अपनी इच्छा से ही कहीं गया है। मैं आपके सामने शोकाकुल हो अपने प्राण छोड़ दूंगी। रुक्मिणी की ऐसी बात सुनकर श्री कृष्ण जी यादवों की सभा में उपस्थित हुए। वहां उन्होंने परम तेजस्वी लोमश ऋषि के दर्शन किए। उन्हें प्रणाम कर श्री कृष्ण ने सारी घटना कह सुनाई।

श्री कृष्ण ने लोमश ऋषि से पूछा कि, हे मुनिवर! हमारे पौत्र को कौन ले गया? वह कहीं स्वयं तो नहीं चला गया है? हमारे बुद्धिमान पौत्र का किसने अपहरण कर लिया, यह बात मैं नहीं जानता हूं। उसकी माता पुत्र वियोग के कारण बहुत दुखी हैं। कृष्ण जी की बात सुनकर लोमश मुनि ने कहा, हे कृष्ण! बाणासुर की कन्या उषा की सहेली चित्रलेखा ने आपके पौत्र का अपहरण किया हैं और उसे बाणासुर के महल में छिपा के रखा हैं। यह बात नारद जी ने बताई हैं।

आप आश्विन मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्थी संकटा का अनुष्ठान कीजिए। इस व्रत के करने से आपका पौत्र अवश्य ही आ जाएगा। ऐसा सुनकर मुनिवर वन में चले गए। श्री कृष्ण जी ने लोमश ऋषि के कथानुसार व्रत किया और इस व्रत के प्रभाव से उन्होंने अपने शत्रु बाणासुर को पराजित कर दिया। यद्यपि उस भीषण युद्ध में शिव जी ने भी बाणासुर की बड़ी रक्षा की फिर भी वह परास्त हो गया। भगवान् कृष्ण ने कुपित होकर बाणासुर की सहस्त्र भुजाओं को काट डाला। ऐसी सफलता मिलने का कारण व्रत का प्रभाव ही था।

अत: श्री गणेश जी को प्रसन्न करने तथा संपूर्ण विघ्न को दूर करने के लिए इस व्रत के सामान कोई दूसरा व्रत नहीं हैं। भगवान कृष्ण कहते हैं संपूर्ण विपत्तियों के विनाश के लिए मनुष्य को इस व्रत को अवश्य ही करना चाहिए। इसके प्रभाव से शत्रुओं पर विजय प्राप्त होती है। इस व्रत के महिमा का वर्णन बड़े-बड़े विद्वान भी नहीं कर सकते। ऐसा इस चतुर्थी व्रत का प्रभाव है।

 

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