चंडीगढ़:- 15 जुलाई:- अल्फा न्यूज इंडिया डेस्क प्रस्तुति:—जिसका कब्जा भारत के वाणिज्य पर होगा, वह विश्व पर राज करेगा।—18वीं सदी में रूस के पीटर महान ने कहा था।
“जिसका कब्जा अफगानिस्तान पर होगा वह विश्व पर राज करेगा।” ये मेरा मानना है।
अमेरिका और रूस इसमें बाहरी सहायक खिलाड़ी भर हो सकते हैं, लेकिन अपनी भूराजनैतिक स्थिति के कारण स्वयं खेल में भाग नहीं ले सकते।
ऐसा नहीं कि उन्होंने कोशिश नहीं की। रूस ने सोवियत संघ के रूप में पिछली शताब्दी में और अमेरिका ने अभी तक यह कोशिश की लेकिन असफल रहे।
चीन इस बात को समझ गया कि अफगानिस्तान में सीधे घुसने का अर्थ है सिकियांग प्रांत के जरिये इस्लामिक आतंकवाद का प्रवेश इसलिये उसने इस क्षेत्र पर नियंत्रण बनाने के लिए अपनी एक दूसरी परियोजना को मोहरा बनाया और वह थी, ‘सीपैक’ ।
अमेरिका व भारत, दोंनों देशों के थिंकटैंक, इसके पीछे छिपे इरादों को भांप गये और विरोध में उतर आये।
लेकिन, चीन-पाकिस्तान की दोस्ती परवान चढ़ती गई और उसने कश्मीर का एक हिस्सा चीन को बेच दिया।
उस समय भारत में कांग्रेस की सरकार थी, जिसके नेताओं को भ्रष्टाचार से फुर्सत न थी, तो जियोपोलिटिक्स के लिए समय कहां से आता?
बहरहाल 2014 में मोदीजी की सरकार आई और उन्होंने पहले दिन से इसका समाधान ढूँढना शुरू किया। यह समाधान था- गिलगित-बाल्टिस्तान।
यह एक ऐसी जादू की चाबी है जिसके द्वारा एक साथ इस्लामिक आतंकवाद, चीन की हेकड़ी, अफगानिस्तान , मध्य एशिया व ईरान से होकर व्यापार व वाणिज्य पर एक साथ नियंत्रण किया जा सकता है।
गिलगित बाल्टिस्तान की भोगौलिक स्थिति है ही ऐसी।
प्रयास आरंभ हुये, पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था को नियंत्रित करने व चीन की सीपैक के विरुद्ध पाकिस्तानियों में ही आक्रोश द्वारा क्योंकि चीन ने सीपैक हाइवे के दोंनों ओर तथा बलूचिस्तान तक कई स्थलों पर ‘चाइनीज टाउन’ बसा दिये हैं जहाँ पाकिस्तान की कोई संप्रभुता नहीं है। वहाँ चीनी कानून, चीनी प्रशासन, चीनी मुद्रा ही चलती है।
अब नई खबर के अनुसार पाकिस्तान चीन को गिलगित-बाल्टिस्तान को 90 अरब डॉलर के ऋण के बदले बेचने जा रहा है।
इसमें भारत के लिए फायदेमंद स्थिति यह है कि साठ के दशक में वहाँ अमेरिकी उपस्थिति से भयभीत होकर चीन ने उस दस्तावेज पर हस्ताक्षर किये हुए हैं जिसमें उसने इस क्षेत्र को विवादग्रस्त मानते हुए, समाधान होने पर संबंधित देश को मान्यता देने की बात की है।
अब चूंकि स्वयं चीन ही अपने रिकॉर्ड से पलट रहा है तो भारत के पास प्रतिकार में मौका है कि वह तिब्बत की निर्वासित सरकार को मान्यता दे दे और ताईवान को स्वतंत्र देश के रूप में।
लेकिन ऐसा करने के अपने खतरे हैं और सबसे बड़ा खतरा है परमाण्विक युद्ध का क्योंकि यह तो तय हो चुका है कि थलसेना और वायुसेना के मामले में भारत चीन पर इक्कीस है लेकिन परमाणु युद्ध में मामला 50-50 है, जो पहले मारे सो मीर।
तो उपाय क्या है?
उपाय है ‘क्वाड’।
लेकिन दुर्भाग्य से अमेरिकी पैट्रो व आर्म्स इंडस्ट्री और कॉमेडियन झेलेंस्की के कारण रूस को चीनी पाले में धकेल दिया गया है और भारत-चीन युद्ध में अगर रूस के भारत के पक्ष में बोलने की उम्मीद जिन्हें है, उन्हें मूर्खता की हद तक पहुँचा आशावादी कहूँगा।
दरअसल भारत की प्लानिंग को झटके दो कारणों से लगे-प्रथम तो कोरोना और दूसरा ट्रंप की जगह थकेले जो बिडेन का राष्ट्रपति चुना जाना।
क्वाड में अमेरिका व भारत में एक दूसरे के प्रति आशंका है।
अमेरिका चाहता है कि बिना किसी आश्वासन के भारत रूस के विरुद्ध प्रतिबंधों में सहयोग करे जबकि भारत का स्पष्ट कहना है कि उसे आत्महत्या का कोई शौक नहीं।
दरअसल, भारत जब तक ऊर्जा और हथियार क्षेत्र में स्वाबलंबी नहीं होगा, उसकी स्वतंत्र विदेश नीति सम्भव नहीं।
अगर आज भारत इन दोंनों क्षेत्रों में आत्मनिर्भर होता तो रूस पर प्रतिबंध लगा चुका होता और गिलगित-बाल्टिस्तान में हिंदू सेना घुस चुकी होती।
अब वर्तमान स्थिति यह है कि चीन क्वाड देशों के अंतर्विरोधों का फायदा उठाकर गिलगित-बाल्टिस्तान में घुस चुका है जिसपर भारतीय पक्ष की प्रतिक्रिया आनी शेष है।
भारत इस वर्ष जम्मू-कश्मीर में G20 का सम्मेलन कराने जा रहा है।
चीन इसके निहितार्थ बखूबी समझता है अतः पाकिस्तान के बहाने उसने इस सम्मेलन स्थल की वैधता पर प्रश्न उठाना शुरू कर दिया है।
लेकिन अगर मोदी सरकार ये सम्मेलन सफलतापूर्वक करवा ले गई!! तो शीतकालीन सत्र या बजट सत्र से भारत की जनता एक के बाद एक धमाकों के लिये तैयार रहे।
पहले राजनैतिक धमाके होंगे और फिर वास्तविक धमाके। तब तक अब्बास के घर स्नेह यात्राओं का दौर जारी रहेगा।
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