सिख धर्म के लिए हिंदू धर्म का महानत्यागी बलिदानी निडर अजय योद्धा लक्ष्मण दास बंदा बैरागी

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चंडीगढ़:-09 जून: आरके विक्रमा शर्मा/ अनिल शारदा/ करण शर्मा प्रस्तुति:– हिंदू धर्म का गौरव और सिख धर्म की नींव का पत्थर बन्दा बैरागी* का जन्म *27 अक्तूबर, 1670* को *ग्राम तच्छल* किला, पुंछ में *श्री रामदेव* के घर में हुआ. उनका बचपन का नाम *लक्ष्मणदास* था. युवावस्था में शिकार खेलते समय उन्होंने एक *गर्भवती हिरणी* पर तीर चला दिया. इससे उसके पेट से एक शिशु निकला और तड़पकर वहीं मर गया. यह देखकर उनका मन *खिन्न* हो गया. उन्होंने अपना नाम *माधोदास* रख लिया और घर छोड़कर *तीर्थयात्रा* पर चल दिये. अनेक साधुओं से *योग साधना* सीखी और फिर *नान्देड़* में कुटिया बनाकर रहने लगे.

 

इसी दौरान *गुरु गोविन्दसिंह* जी *माधोदास* की कुटिया में आये. उनके *चारों पुत्र* बलिदान हो चुके थे. उन्होंने इस कठिन समय में *माधोदास* से *वैराग्य* छोड़कर देश में व्याप्त *इस्लामिक आतंक* से जूझने को कहा. इस भेंट से *माधोदास* का जीवन बदल गया. *गुरुजी* ने उसे *बन्दा बहादुर* नाम दिया. फिर *पाँच तीर*, *एक निशान साहिब* , *एक नगाड़ा* और *एक हुक्मनामा* देकर *दोनों छोटे पुत्रों* को दीवार में चिनवाने वाले सरहिन्द के नवाब से बदला लेने को कहा. *बन्दा बहादुर* , *हजारों सिख* सैनिकों को साथ लेकर *पंजाब* की ओर चल दिये.

 

उन्होंने सबसे पहले *श्री गुरु तेगबहादुर* जी का शीश काटने वाले *जल्लाद जलालुद्दीन* का सिर काटा. फिर *सरहिन्द* के *नवाब वजीरखान* का वध किया. जिन *हिन्दू राजाओं* ने मुगलों का साथ दिया था, *बन्दा बहादुर* ने उन्हें भी नहीं छोड़ा. इससे चारों ओर उनके नाम की धूम मच गयी. उनके पराक्रम से भयभीत मुगलों ने दस लाख फौज लेकर उन पर हमला किया और *विश्वासघात* से *17 दिसम्बर, 1715* को उन्हें पकड़ लिया. उन्हें लोहे के एक पिंजड़े में बन्दकर, हाथी पर लादकर सड़क मार्ग से दिल्ली लाया गया.

 

उनके साथ हजारों सिख सैनिक भी कैद किये गये थे. इनमें *बन्दा बहादुर* के वे *740* साथी भी थे, जो प्रारम्भ से ही उनके साथ थे. युद्ध में *वीरगति* पाए सिखों के सिर काटकर उन्हें भाले की नोक पर टाँगकर दिल्ली लाया गया. रास्ते भर गर्म चिमटों से बन्दा बैरागी का माँस नोचा जाता रहा. काजियों ने *बन्दा बहादुर* और उनके साथियों को *मुसलमान* बनने को कहा; पर सबने यह प्रस्ताव ठुकरा दिया. दिल्ली में आज जहाँ *हार्डिंग लाइब्रेरी* है, वहाँ *7 मार्च, 1716* से प्रतिदिन सौ वीरों की हत्या की जाने लगी. एक दरबारी *मुहम्मद अमीन* ने पूछा – तुमने ऐसे बुरे काम क्यों किये, जिससे तुम्हारी यह दुर्दशा हो रही है ?

 

बन्दा ने सीना फुलाकर *सगर्व* उत्तर दिया – *मैं तो प्रजा के पीड़ितों को दण्ड देने के लिए परमपिता परमेश्वर के हाथ का शस्त्र था*. क्या तुमने सुना नहीं कि जब संसार में दुष्टों की संख्या बढ़ जाती है, तो वह *मेरे जैसे किसी सेवक* को धरती पर भेजता है. *बन्दा बहादुर* से पूछा गया कि वे कैसी मौत मरना चाहते हैं ? बन्दा ने उत्तर दिया, मैं अब मौत से नहीं डरता; क्योंकि यह शरीर ही दुःख का मूल है. यह सुनकर सब ओर सन्नाटा छा गया. भयभीत करने के लिए उनके *पाँच वर्षीय पुत्र अजय सिंह* को उनकी गोद में लेटाकर *बन्दा बहादुर* के हाथ में छुरा देकर उसको मारने को कहा गया.

 

बन्दा ने इससे इन्कार कर दिया. इस पर *जल्लाद ने उस बच्चे के दो टुकड़ेकर उसके दिल का माँस बन्दा के मुँह में ठूँस दिया. पर वे तो इन सबसे ऊपर उठ चुके थे. गरम चिमटों से माँस नोचे जाने के कारण उनके शरीर में केवल हड्डियाँ शेष थी. फिर भी आज ही के दिन अर्थात आठ जून, 1716 को उस वीर को हाथी से कुचलवा दिया गया. इस प्रकार बन्दा वीर बैरागी अपने नाम के तीनों शब्दों को सार्थक कर बलिपथ पर चल दिये. आज बलिदान के उस महामूर्ति को उनके बलिदान दिवस पर *एकल* परिवार बारम्बार नमन करते हुए उनके गौरवगान को सदा सदा के लिए अमर रखने का संकल्प लेता है …

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