चंडीगढ़: 19 फरवरी: आर के विक्रम शर्मा/ करण शर्मा+ अनिल शारदा प्रस्तुति :- सत्तर के दशक में जब लक्ष्मीकांत प्यारेलाल की ढोलक की थाप, कल्याणजी आनंदजी की बीन और आर डी बर्मन के पाश्चात्य संगीत की धूम मची हुई थी और हर निर्माता अपनी-अपनी फिल्मों में इन्हीं में से किसी एक को लेने को आतुर था, ऐसे में अचानक तीन युवा, ऊर्जावान और सुरीले संगीतकार दृश्य पटल पर उभरे। इनमें एक तो प्रकृति की गोद में रचा बसा संगीत सृजित करने वाले रवींद्र जैन थे, दूसरे थे अपने पिता की ही तरह लीक से हटकर कोमल संगीत देनेवाले राजेश रोशन; और तीसरे बहुविध प्रतिभा के धनी बप्पी लहरी।
किसी भी संगीतकार की प्रतिभा का समग्र मूल्यांकन तो उसका पूरा काम समझने के बाद ही हो पाता है, लेकिन उसकी पहली फिल्म से यह अंदाज तो लग ही जाता है कि सात सुरों के जिस कारवां में वह शामिल हुआ है, उसमें वह कहाँ तक और कब तक चल सकेगा। यही कारण था कि 1975 में जब बप्पी लहरी की पहली हिंदी फिल्म ‘ज़ख़्मी’ प्रदर्शित हुई, तो थियेटर में फिल्म शुरू होने के दस मिनट के भीतर जैसे ही लता की मर्मस्पर्शी आवाज़ में गीत ‘आओ तुम्हें चाँद पे ले जाएँ’ बजा, सुधि श्रोताओं के दिल के तार झनझना उठे। थोड़ी देर बाद झूमता लहराता गीत ‘अभी अभी थी दुश्मनी, अभी है दोस्ती’ आया और पश्चिम की ‘आबा रेकॉर्ड’ के दीवाने खुशी से झूम उठे। दर्शकों की यह प्रसन्नता अभी कम हुई ही न थी कि उनके सामने होली गीत ‘आली रे आली रे होली आली मस्तानों की टोली’ आया और लोक संगीत, पाश्चात्य संगीत और भारतीय संगीत के समवेत स्वरों से संपन्न प्रतिभा के रूप में बप्पी लहरी नामक नया सितारा उदित हो गया।
‘ज़ख्मी’ के ही आस-पास बप्पी के संगीत से सजी एक साधारण सी फिल्म ‘चलते चलते’ प्रदर्शित हुई, लेकिन इसके गाने असाधारण थे। ‘प्यार में कभी-कभी ऐसा हो जाता है’ और ‘जाना कहां है’ जैसे ठंडे-मीठे गीतों के साथ-साथ ‘चलते चलते मेरे गीत याद रखना’ के रूप में संगीतप्रेमियों को एक ऐसा गीत सुनने को मिला, जिसका अनुप्रयोग 47 वर्ष बाद आज भी हर विदाई समारोह में कॉलेज छात्रों से लेकर कोच की विदाई के पलों में क्रिकेटर तक करते हैं।
कुछ ही अरसे बाद ‘आपकी खातिर’ फिल्म आई, जिसे हफ्ते भर में ही भुला दिया गया। लेकिन उसमें बप्पी दा द्वारा गाया गीत ‘बंबई से आया मेरा दोस्त’ गली-गली गूंज उठा। रफी, किशोर, मुकेश, मन्ना जैसे सुरीले और व्यवस्थित गायकों के आदी श्रोताओं के लिए बप्पी नितांत अटपटी और चटपटी आवाज़ थी। बप्पी इतना मीठा गाते कि जिन शब्दों के आखिरी अक्षर में मात्रा नहीं होती, उनमें भी ‘ई’ की मात्रा लगा देते। इसीलिए तो ‘छोड़ो काले धंधे सफ़ेद काम करो’ को वे ‘सफेदी कामी करो’ गाते हैं। इसी दौरान महेश भट्ट की ‘लहू के दो रंग’ में ‘चाहिए थोड़ा प्यार’ गाने में किशोर से तीन बार ‘प्यार प्यार प्यार’ बुलवाकर बप्पी ने विनोद खन्ना जैसे नृत्य के मामले में कच्चे खिलाड़ी को भी सही तरीके से हाथ-पैर हिलाने पर मजबूर कर दिया।
बप्पी को काम मिल रहा था, गीत पसंद किए जा रहे थे, लेकिन उनकी जगह अब भी नहीं बन पाई थी। ऐसे में उन्होंने हवा का रुख भाँपा और डिस्को गीत की रचना शुरू कर दी। उनका पहला ही डिस्को गीत ‘हरि ॐ हरि’ एक अत्यंत ही साधारण सी फ़िल्म ‘प्यारा दुश्मन’ का था। फ़िल्म को झेलना तो दर्शकों के लिए लगभग असंभव था, लेकिन इस गीत की लोकप्रियता का आलम यह था कि जैसे ही गीत परदे पर शुरू होता, दर्शक भी उषा उथप के संग-संग ‘हरि ॐ हरि’ की चित्कार करने लगते। थोड़े ही दिन बाद एक और दोयम दर्जे की फ़िल्म ‘अरमान’ में वे एक और दमदार गीत ‘रंबा हो हो हो शंभा हो हो हो’ लेकर उपस्थित हो गए। इसी बीच ‘मृगया’ जैसी कला फ़िल्म देने के बाद अरसे से बेकार बैठे मिथुन चक्रवर्ती ने ‘सुरक्षा’ में गन मास्टर के रूप में अपना ट्रैक चेंज किया और युवा मिथुन की तरह चौड़ी मोरी की पैंट पहन कर ‘गन मास्टर जी नाइन’ करने लगे। मिथुन की ‘वोंटेड’ भी इसी श्रेणी की फ़िल्म थी। तभी निर्देशक बी सुभाष की ‘डिस्को डांसर’ आई। डिस्को के रस में सराबोर ‘कोई यहाँ आहा नाचे नाचे’ और ‘आय एम ए डिस्को डांसर’ को सुन-सुन कर लोग वारे-वारे हो गए। फ़िल्म हैदराबाद में 75 सप्ताह तक चली।
बप्पी के डिस्को की लहर ने लोगों को इस तरह लपेटा कि चाहे गणेश उत्सव हो, चाहे कॉलेज का सालाना जलसा, डिस्को गीत कार्यक्रमों का अनिवार्य हिस्सा बन गए। बरसों से जो नौटंकियाँ उपेक्षित बैठी थीं वे भी सक्रिय हो उठीं और मेलो-ठेलों में नाम-मात्र के शुल्क पर स्टेज लगाकर डिस्को आइटम पेश किए जाने लगे, जिन्हें सुनने के लिए युवा पीढ़ी पागल की हद तक दीवानी हो गई। लेकिन जैसा कि खय्याम साहब ने कहा था, डिस्को संगीत मलेरिया बुखार की तरह है, यह जितनी जल्दी आया है, उतनी ही जल्दी चला भी जाएगा। वही हुआ, कुछ अरसे में ही लोग मिथुन और डिस्को गानों से बोर होने लगे, फ़िल्में पिटने लगीं, लेकिन इससे बप्पी की सफलता पर कोई आंच नहीं आई।
उतरते-चढ़ते डिस्को के दौर में उन्हें प्रकाश मेहरा की महत्वपूर्ण फिल्म ‘नमक हलाल’ में संगीत देने का मौका मिला। इस फिल्म के ‘पग घुंघरू बांध’ में शास्त्रीय संगीत और डिस्को संगीत का अद्भुत फ्यूजन था। फिल्म में बप्पी ने शशि कपूर के लिए ‘रात बाकी’ गीत में पार्श्व गायन किया, जो भले उन जैसे चिकने चुपड़े अभिनेता पर कतई न जमा हो, लेकिन श्रोताओं ने इस गीत को भी हाथों-हाथ लिया। प्रकाश मेहरा की ही ‘शराबी’ में ‘मुझे नौ लखा मांगा दे’, ‘दे दे प्यार दे’ जैसे धूम धड़ाका गीतों के बीच ‘मंज़िलें अपनी जगह हैं रास्ते अपनी जगह’ जैसा गंभीर गीत भी दर्शकों को देखने-सुनने को मिला। इस गीत की लोकप्रियता का आलम यह है कि आज भी किशोर के गानों के मुरीद लोग छोटी-मोटी महफिलों में कोट पहन, पैंट की जेब में हाथ डाल अमिताभ की ही तरह गर्दन तिरछी कर यह गाना सुनाने लगते हैं।
अस्सी के दशक में अचानक जीतेंद्र-श्रीदेवी अभिनीत फिल्म ‘हिम्मतवाला’ आई और इंदीवर के शब्द व बप्पी लहरी के संगीत ने ‘ता थैया ता थैया हो’ के रूप में अजीबो गरीब लेकिन सुपर हिट गीत दिया। इसी के साथ दक्षिण के फ़िल्मकारों में जीतेंद्र, बप्पी और इंदीवर की तिकड़ी को लेने के लिए धक्का-मुक्की मच गई। ‘मवाली’, ‘तोहफा’, ‘जानी दोस्त’, ‘जस्टिस चौधरी’, ‘मकसद’, ‘हैसियत’ जैसी कितनी मामूली-गैर-मामूली फिल्मों की आँधी आई, इनमें पहले तो दूसरे संगीतकार उड़े, फिर फिल्म संगीत उड़ा और अंततः बप्पी दा भी उड़ गए। इस प्रकार लगभग दस वर्ष की सफल पारी खेलने के बाद बप्पी दृश्य पटल से ओझल हो गए। हालांकि बाद में ‘मोहब्बत’ (सासों से नहीं कदमों से नहीं, मुहब्बत से चलती है दुनिया), ‘साहेब’ (यार बिना चैन कहाँ रे), ‘सत्य मेव जयते’ (दिल में हो तुम आँखों में तुम), ‘आज का अर्जुन’ (गोरी हैं कलाइयाँ), ‘थानेदार’ (तम्मा तममा लोगे) जैसी कुछ फिल्मों में उनके गीत सुनाई दिए। इक्कीसवीं सदी में ‘डर्टी पिक्चर’ में ‘ऊ लाला ऊ लाला’ जैसा चर्चित गीत भी उन्होंने बनाया, जो दरअसल ‘मवाली’ में बनाई उनकी धुन ‘ऊई अम्मां ऊई अम्मां’ की ही अनुकृति था। लेकिन यह सब टिमटिमाते दिये की आखिरी लपलपाती लौ की ही तरह थे। विगत तीन दशकों में हमने बप्पी को कोई नई धुन रचते हुए नहीं, बल्कि विभिन्न संगीत जलसों में सोने की चैन पहने हुए या ‘रियलिटी शोज’ में उभरते गायकों को चैन बांटते हुए ही देखा है। इसके बावजूद आज हम बप्पी को एक ऐसे मासूम, गोल-मटोल और प्रतिभाशाली इंसान के रूप में जानते हैं, जिसने अपने लोकप्रिय संगीत के दम पर एक पीढ़ी को लुभाया था, भरमाया था और लहराते संगीत के संग-संग झूमने को मजबूर कर दिया था। साभार शशांक दुबे।।