चंडीगढ़:– 20 अक्टूबर:-करण शर्मा अनिल शारदा प्रस्तुति:—एक बहुत ही मशहूर महात्मा थे। उनके पास रोज ही बड़ी संख्या में लोग उनसे मिलने आते थे। एक बार एक बहुत ही अमीर व्यापारी उनसे मिलने पहुंचा। व्यापारी ने सुन रखा था कि महात्मा बड़े ही सुफीयाना तरीके से रहते है। जब वह व्यापारी महात्मा के दरबार में पहुंचा तो उसने देखा कि कहने को तो वह महात्मा है, लेकिन वे जिस आसन पर बैठे है, वह तो सोने का बना है, चारों ओर सुगंध है, जरीदार पर्दे टंगे है, सेवक है जो महात्माजी की सेवा में लगे है और रेशमी ड़ोरियो की सजावट है।
व्यापारी यह देखकर भौंच्चका रह गया कि हर तरफ विलास और वैभव का साम्राराज्य है। ये कैसे महात्मा है? महात्मा उसके बारे में कुछ कहते, इसके पहले ही व्यापारी ने कहा, “महात्माजी आपकी ख्याती सुनकर आपके दर्शन करने आया था, लेकिन यहाँ देखता हूँ, आप तो भौतिक सपंदा के बीच मजे से रह रहे हैं लेकिन आप में साधु के कोई गुन नजर नही आ रहे है।“
महात्मा ने व्यापारी से कहा, “व्यापारी… तुम्हें ऐतराज है तो मैं इसी पल यह सब वैभव छोड़कर तुम्हारे साथ चल देता हूँ।“
व्यापारी ने कहा, “हे महात्मा, क्या आप इस विलास पूर्ण जीवन को छोड़ पाएंगे?“
महात्माजी कुछ न बोले और उस व्यापारी के साथ चल दिए और जाते-जाते अपने सेवको से कहा कि यह जो कुछ भी है सब के सब गरीबो में बाँट दें।
दोनो कुछ ही दूर चले होंगे कि अचानक व्यापारी रूका और पीछे मुड़ा और कुछ सोचने लगा।
महात्मा ने पूछा, “क्या हुआ रूक क्यों गए?“
व्यापारी ने कहा, “महात्मा जी, मैं आपके दरबार में अपना कांसे का लोटा भूल आया हूँ। मैं उसे जाकर ले आता हूँ, उसे लेना जरूरी है।”
महात्माजी हंसते हुए बोले, “बस यही फर्क है तुममें और मुझमें। मैं सभी भौतिक सुविधाओं का उपयोग करते हुए भी उनमें बंधता नहीं, इसीलिए जब चाहुं तब उन्हें छोड़ सकता हूँ और तुम एक लोटे के बंधन से भी मुक्त नहीं हो।“
इतना कहते हुए महात्माजी फिर से अपने दरबार की ओर जानें लगे और वह व्यापारी उन्हें जाता हुआ देखता रहा क्योंकि महात्मा उसे जीवन का सबसे अमूल्य रहस्य बता चुके थे।
इस छोटी सी कहानी का सारांश ये है कि चीजों का उपयोग करना, लेकिन उनके मोह में न पड़ना, यही जीवन का अन्तिम उद्देश्य होना चाहिए क्योंकि मोह ही दु:खों का कारण है और जिसे चीजों का मोह नहीं, वह उनके बंधन में भी नहीं पड़ता और जो बंधन में नही पड़ता, वो हमेंशा मुक्त ही है।