भगवान श्री राम का आदर्श मर्यादित पुरुषोत्तम व्यक्तित्व का भान है रामायण:- पंडित कृष्ण मेहता

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चंडीगढ़ 2 अक्टूबर आर के विक्रम शर्मा करण शर्मा प्रस्तुति:— समग्र सृष्टि में रामायण से बड़ा कोई भी महाकाव्य नहीं है जो युग युगांतर जन्मों का परिष्कृत स्वरूप का निर्माण करने की आदर्श कला सिखाता हो रामायण में राम जी ने जीवन को सही मायने में सही दिशा निर्देशों मुताबिक जीने की अद्भुत समर्थ्य और कला पक्ष का सुमेल प्रस्तुत किया है इस समय ज्योतिषी एवं पंडित कृष्ण मेहता ने आमुख विशेष अंश को अल्फा न्यूज़ इंडिया के माध्यम से लाखों सुधि पाठकों सहित संख्या आस्था वालों के लिए संकलन पुष्प के रूप में प्रस्तुत किया है।
*अहं केन्द्रित व्यक्ति को यह पसंद नहीं*
*कि कोई उसे समझाने की चेष्टा करे।*

पूरे रामचरित मानस में रावण को समझाने के लिए, रावण के अन्तःकरण के मोह को मिटाने के लिए जितनी चेष्टा की गई, उतनी चेष्टा किसी अन्य व्यक्ति के लिए कभी नहीं की गई। मारीच से लेकर साक्षात् श्री हनुमानजी तक रावण के कल्याण के लिए व्यग्र हैं। किन्तु रावण पर उसकी रंचमात्र भी कोई अनुकूल प्रतिक्रिया नहीं हुई।
हनुमानजी को भेजने के पीछे प्रभु का उद्देश्य यही था कि हनुमानजी, शंकर जी के रूप में, रावण के गुरु हैं। इसलिए वे ही रावण को उपदेश देकर उसका कल्याण करें। हनुमानजी से बड़ा कोई कथावाचक नहीं है। हनुमानजी द्वारा रामचरित मानस में अनेकानेक कल्याणकारी कथाएँ कही गयी हैं, जो सर्वविदित हैं। रावण की सभा में आने से पहले श्री हनुमानजी की कथा कितनी दिव्य होती है इसका संकेत अशोक-वाटिका में मिलता है। वे वहाँ पर ऐसी मंगलमयी कथा सुनाते हैं कि जिसको सुनकर श्री सीताजी का दुःख दूर हो गया।
*रामचन्द्र गुन बरनैं लागा।*
*सुनतहिं सीता कर दुख भागा।।*
*लागी सुनैं श्रवन मन लाई।*
*आदिहुँ तें सब कथा सुनाई।।*
और हनुमानजी ने माँ को कथा कैसी सुनाई थी ? गोस्वामीजी ने कहा :–
*मन संतोष सुनत कपि बानी।*
*भगति प्रताप तेज बल सानी।।*
हनुमानजी ने माँ के समक्ष जो कथा सुनाई उसमें *भक्ति* भी थी, भगवान का *प्रताप* था, भगवान का *बल* था और भगवान का *तेज़* था। (वही) हनुमानजी रावण की सभा में भी गये। और हनुमानजी ने जैसी चार वस्तुओं का प्रयोग श्री सीताजी के संदर्भ में किया था, उनसे मिलती-जुलती ही चार वस्तुओं का प्रयोग किया रावण को समझाते हुए भी किया —
*जदपि कही कपि अति हित बानी।*
*भगति विवेक विरति नय सानी।।*
परन्तु अन्तर यह है कि श्री सीताजी के सन्दर्भ में उन्होंने वैराग्य तथा राजनीति का प्रयोग नहीं किया, किन्तु रावण के समक्ष जो कथा सुनाई उसमें उन्होंने राजनीति और वैराग्य का समावेश करने की चेष्टा की।
श्री हनुमानजी ने रावण से कहा कि तुमने त्रैलोक्य विजय के द्वारा सब पा लिया, अब तुम्हारे लिए कोई भी ऐसी वस्तु शेष नहीं रह गई जिसके लिए तुम प्रयत्न करो। और ऐसी स्थिति में तुम्हारे लिए क्या यह उपयुक्त नहीं है, कि तुम इस अवस्था में राज्य का परित्याग कर दो, श्री सीताजी को श्री राम को लौटा दो, और अपने हृदय में भक्ति-भाव धारण करो ? हनुमानजी ने राजनीति की दृष्टि से भी यही संकेत किया। रावण के समक्ष दृष्टांत देकर हनुमानजी ने बड़ी चतुराई से, बड़ी सौम्य भाषा में रावण को यह याद दिलाया कि तुम इससे भी पहले पराजित हो चुके हो, और जिनसे तुम पराजित हुए हो वे भी भगवान श्री राम से पराजित हो चुके हैं। पर उनका _सन्तत्त्व यह है कि पराजय की याद दिलाते समय भी उन्होंने पराजय शब्द का प्रयोग नहीं किया।_ उन्होंने रावण से यही कहा :
*मैं जानउँ तुम्हारि प्रभुताई।*
*सहस बाहु सन परी लराई।।*
मैं आपकी प्रभुता को जानता हूँ कि आपने सहस्त्रार्जुन से युद्ध किया था। इसके पीछे हनुमानजी का अभिप्राय था कि सभा में रावण की अवहेलना न हो और उसे याद भी आ जाय। और उसमें राजनैतिक संकेत यह था कि तुम्हें सहस्त्रार्जन ने हराया, सहस्त्रार्जुन को परशुराम जी ने हराया और परशुराम जी भगवान राम के सामने झुक गए। इस स्थिति में तुम विचार करके देखो कि तुम भौतिक दृष्टि से भी उनके बल की बराबरी करने में समर्थ हो क्या ? फिर हनुमानजी ने दूसरा वाक्य कहा :–
*समर बालि सन करि जस पावा।*
आपने बालि से युद्ध करके तो बड़ा यश प्राप्त किया। वहाँ पर भी चतुराई से पराजय शब्द को टाल गए, किन्तु उनका अभिप्राय यही था कि जिस बालि ने तुम्हें पराजित किया उस बालि की श्री राम के एक बाण से ही मृत्यु हो गई। इसलिए तुम राजनीति की दृष्टि से विचार करके देखो कि जो भगवान राम तुमसे सर्वथा अधिक शक्तिशाली है क्या उनका विरोध करना उचित है ? हनुमानजी ने रावण को इतना बढ़िया उपदेश दिया परन्तु प्रभाव क्या पड़ा ? एक ओर कथा सुनकर जनक नन्दिनी श्री सीता का सारा दुःख भाग गया। पर दूसरी ओर, गोस्वामीजी ने कहा कि यद्यपि कथा वाचक भी वही और कथा भी बड़ी प्रभावशाली है, लेकिन अन्तर यह है कि कथा सुनकर — *”बोला बिहँसि”* — रावण खूब हँसा।
हनुमानजी ने रावण को हँसते हुए देखा तो उन्हें उसकी पुरानी गाथा याद आ गई। रामायण में रावण के अनेक कल्प में जन्मों का वर्णन है। उनमें से एक जन्म का रावण भगवान शंकर का गण था। भगवान शंकर के गणों को ही नारद जी ने रावण तथा कुंभकर्ण होने का श्राप दिया था। साक्षात् रुद्र इस समय हनुमानजी के रूप में विराजमान है, और रावण के रूप में उनका गण ही सामने सिंहासन पर बैठा हुआ है। और जब उसने

हनुमानजी की आकृति को देखकर उनके बंदर होने की हँसी उड़ाई तो हनुमानजी को दया आ गई। उन्हें लगा- कितना अभागा है यह, कि एक बार एक बन्दर पर हँसा तो रावण बनना पड़ा और आज फिर हँस रहा है।
अहं केन्द्रित रावण को यह बात बिल्कुल पसंद नहीं आती कि कोई उसे समझाने की चेष्टा करे।
🐒 जय गुरुदेव जय सियाराम 🙏

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