शरीर से छूटे वह त्याग व जो मन से छूटे वह वैराग्य : पंडित कृष्ण मेहता

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चंडीगढ़:- 28 सितंबर:- आरके विक्रमा शर्मा+ करण शर्मा प्रस्तुति:–.त्याग बाहरी है। वैराग्य आंतरिक है पर दोनों अवस्थाओं मे वैष्णव का एक भाव तो दृढ है ही कि “अपने समेत सब प्रभु का है”।

शरीर से त्यागने पर त्यागकर्ता अलग खडा रहता है। मन से त्यागने पर त्यागकर्ता अलग खडा नहीं रह सकता। त्यागने की बात कई लोगों को अच्छी नहीं लगती तो वे अपनाने की भाषा मे सोच सकते हैं। यहाँ अपनाना प्रभु को है स्वयं समेत सबकुछ प्रभु का मानकर।

प्रभु का मानने वाले का बंधनकारी रागद्वेष छूट जाता है। ये मुख्य रुप से आंख और कान मे रहते हैं। कुछ भी देखा, कुछ भी सुना और तत्काल उसे पसंद या नापसंद करने लगते हैं। यह जकडन बडी पीडादायक है। इससे छूटने का रास्ता मालूम नहीं होता तो कर्ताभोक्ता भाव से इसका औचित्य-समर्थन होने लगता है अर्थात पीडा वृद्धि के इंतजाम मे खुद जुट जाना।

ये पीडा कोई नहीं देता सिवाय अपने रागद्वेष या पसंदनापसंद की जकडन मे जकडे रहने के।जकडन अच्छी नहीं लगती पर उसका मूल कारण दिखाई ही नहीं देता।

रागद्वेष की जकडन स्वतः नहीं है।रागद्वेष के मूल मे अहंताममता अर्थात् मैमेरेपन का भाव है। इसे कृष्ण को अर्पण करना है और बदले मे कृष्ण को ले लेना है।सौदा महंगा नहीं है। यदि कृष्ण को लेना भी चाहते हैं और अहंताममता छोडना भी नहीं चाहते। तो यह बेईमानी नहीं चल सकती। कृष्ण मिलेंगे ही नहीं।

और यदि मिल गये तो वे आनंदस्वरूप हैं। हम अहंताममता को आनंदस्वरूप बनाना चाहते हैं, कोशिश भी करते हैं और यह असंभव है। हमे अहंताममता कृष्ण चरणों मे अर्पित करनी होगी। चूंकि तादात्म्य के कारण हम स्वयं अहंताममता बने हुए हैं अतः हमे अपने आपको समर्पित करना होगा। यदि आत्मा अलग खडी रह जाती है तो आत्मा को भी समर्पित कर देना होगा- आत्मना सह समर्पयामि।इससे समर्पणकर्ता खुद समर्पित हो जाता है। कुछ भी नहीं बचता केवल कृष्ण ही रहते हैं अपने परिपूर्ण स्वरूप मे।

हम आधा अधूरा का अवलंबन करते हैं उसमे आनंद कहां? परिपूर्ण का अवलंबन करें तो हममे भी पूर्णता का अनुभव आकार ले।

अहंताममता पूर्ण नहीं हो सकती। पूर्ण के अवलंबन से अहंताममता विलीन हो जाती है। आनंद प्रकट होता है।

अहंताममता नहीं होती तो रागद्वेष (पसंदनापसंद) भी नहीं होते। वे नहीं होते तो उनकी जकडन से अनुभव होने वाली पीडा का भी सुखद अंत हो जाता है।

प्रभु श्रीमद्भगवद्गीता मे रागद्वेष के वश मे न होने की आज्ञा करते हैं।वशीकरण क्या है? किसीको अपने वश मे कर लेना। रागद्वेष वृत्तियां हैं जबकि वैष्णव मूलतः भगवद्स्वरुप है। लौकिक नहीं है।अब भगवद्स्वरुप, अविद्याजन्य वृत्तियों के वश मे रहे तो क्या होगा? अतः अहंताममता कृष्णार्पण करने का प्रयास अवश्य करना चाहिए।अहंताममता (मै और मेरापन) को महत्व देने के कारण ही रागद्वेषादि वृत्तियां वैष्णव को अपने कब्जे मे कर लेती हैं।

यह प्रयास आरंभ करने पर कई बार ये वृत्तियां अपने वश मे करने की कोशिश करेंगी, अच्छा बुरा लगने लगेगा, पसंदनापसंद होने लगेगा। उस समय सावधान रहना है। पसंदनापसंद के वश मे नहीं होना है। ज्यादातर यह भावहिंसा के रुप मे होता है। किसी व्यक्ति क़ो पसंद करना या नापसंद करना। नापसंदगी ही ज्यादा होती है। यह वैष्णव का स्वरूप नहीं है।वैष्णव द्वेष के वश मे होगा तो उसका मूल स्वरूप कैसे प्रकट होगा जो प्रभु को प्रिय है?

*अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्र:करुण एव च।*

*निर्ममो निरहंकार:समदुःखसुखः क्षमी।।*

भक्त मैमेरारहित होता है-भगवान इसकी पुष्टि कर रहे हैं। ब्रह्म संबंध,भगवत्संबंध का यही मूल प्रयोजन है। मै मेरारहित होते ही शाश्वत ब्रह्मसंबंध स्वतः प्रकट हो जाता है। माध्यम ही सत्य मे परिणत हो जाता है। अतः सेवासत्संगस्मरण के दौरान भी भावहिंसा से बचना चाहिए। मैमेरा का समर्थन करने पर इससे बचा नहीं जा सकता। अज्ञानदशा मे दोषदृष्टि जारी रहती है।

बुराई करना भी बुरा है। बुराई करने वाला इसे भूल जाता है और स्वयं को श्रेष्ठ मानने लगता है।लेकिन बुराई करने वाला श्रेष्ठ कैसे हो सकता है? वह निंदावृत्ति से भरा है।वह कोई सुखी, निर्दोष, प्रेमपूर्ण जीव नहीं है जिसे देखकर सबको अच्छा लगे।

रचनात्मक आलोचना अलग बात है। वह जीव को अपनाकर जीव का कल्याण करने के लिये होती है, न कि उसे ठुकराकर उसका नाश करने के लिये।

सदा सुखी रहना कृष्ण भक्त का लक्षण है। और भक्ति सच्ची है तो सुख की राह मे आने वाली बाधाएं खुद बखुद दूर हो जाती हैं। भक्त श्रीकृष्ण को ही महत्व देता है तथा प्रभु विमुख मै मेरापन को सिरे से नकार देता है। उसका हृदय अखिल सृष्टि से जुडा रहता है।जो हृदय से टूटा है वह सबसे टूटा है।जो हृदय से जुडा है वह सबसे जुडा है। हृदय, ईश्वर है या हृदय मे ईश्वर है।

*ईश्वर:सर्वभूतानां हृद्देशेर्जुन तिष्ठति।*

यह योग्यता या सामर्थ्य जिसमे प्रकट हो समझना चाहिए वह लीला का जीव है।*कृष्णाय वासुदेवाय हरये परमात्मने।**प्रणतक्लेशनाशाय गोविंदाय नमो नमः।।*श्रीगिरिराजधरण की जय।*

 

 

 

 

 

 

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