- . चंडीगढ़:-13 सितंबर:–आरके विक्रमा शर्मा +करण शर्मा प्रस्तुति:—– भगवान श्री कृष्ण जी की अर्जुन से प्रीति भक्त सुदामा से प्रीति गोपाल वालों से प्रीति सब जगजाहिर है मैत्री का अनूठा अनुकरणीय उदाहरण रचने वाले भगवान श्री कृष्ण मैत्री संबंध को किस प्रकार निभाते हैं। आइए ज्योतिषी एवं पंडित कृष्ण मेहता के संकलन पुष्पों के माध्यम से अल्फा न्यूज इंडिया की सुधि पाठकों हेतू प्रस्तुति पर दृष्टिपात करते हैं।
*देखि सुदामा की दीन दसा,*
*करुना करिके करुनानिधि रोये।*
परीक्षितजी महाराज शुकदेवजी से पूछते है अगर द्वारिका में की किसी भक्त पर कृपा हुई हो तो सुनाइए।
शुकदेव जी कहते है राजन मैं आपको भगवान *श्रीकृष्ण* के परम भक्त सुदामाजी की कथा सुनाऊंगा। सुदामा *श्रीकृष्ण* के परम मित्र थे। ये ब्रह्मज्ञानी, विषयों से विरक्त, शांतचित्त और जितेन्द्रिय थे। लेकिन बहुत गरीब थे। लेकिन दरिद्र नही थे।लोग सोचते हैं की जो गरीब हैं तो दरिद्र हैं पर गुरुदेव कहते हैं नही! नही! दरिद्रता और निर्धनता में अंतर हैं। भगवान का भक्त गरीब हो सकता हैं , निर्धन हो सकता हैं पर दरिद्र नही हो सकता। क्योंकि दरिद्र व्यक्ति वो हैं जिसके पास सब कुछ हो लेकिन संतोष न हो। शास्त्र की दृष्टि में दरिद्र वही हैं जिसके मन में सब कुछ होने पर भी संतोष नही हैं।
सुदामा जी को एक समय का भोजन भी ठीक से नही मिलता था। घर में दीवार तो हैं पर छत का ठिकाना नहीं हैं। टूटे फूटे पात्र थे। ३ – ३ दिन तक अपनी पत्नी के साथ भूखे रहते थे। लेकिन कभी भगवान को शिकायत नही की। सुदामा जी की पत्नी का नाम सुशीला था। सुशीला ने एक कहा महाराज! घर में बच्चे भूखे हैं। मैं कैसे इनका पालन करूँ? और आप मुझे अपने मित्र *श्रीकृष्ण* की कथा सुनते हैं। तो आप कहते हैं मेरा मित्र द्वारिका का राजा हैं। तो आप अपने मित्र के द्वार पर मांगने क्यों नही जाते?
सुदामाजी ने कहा, सुशीला मर जाऊंगा लेकिन मांगने नही जाऊंगा। कैसे जाऊं? वो मेरा मित्र हैं। सुशीला बोली ठीक हैं आप अपने मित्र से कुछ मांगने मत जाओ पर दर्शन तो करके आ जाओ और उनसे मिल आओ।
सुदामा जी महाराज कहते हैं ठीक हैं सुशीला मैं अपने मित्र कन्हैया से मिलने जरूर जाँऊगा। लेकिन घर में कुछ हैं क्या? जिसे अपने मित्र को भेंट कर सकूँ?
सुशीला ये जानती थी की घर में कुछ नही हैं। सारे पात्र खाली पड़े हैं। लेकिन फिर भी रसोई घर में गई। और चुपके से घर से निकली। चार घर गई और चार मुट्ठी चावल लेकर आई। सुदामा जी का एक फटा हुआ दुपट्टा था। जिस दुपट्टे की चार तय की। लेकिन फिर भी फटा हुआ हैं इतनी गरीबी हैं। चार की आठ तय की। और जैसे तैसे लपेटा। और सुदामा जी को विदा किया।
लेकर सुदामा जी महाराज जब चलने लगे तो मार्ग में सोचने लगते हैं की मैं एक गरीब हूँ और कृष्ण द्वारिका के राजा हैं। शायद मेरा कन्हैया मुझे ना मिले।
लेकिन गुरुदेव कहते हैं भगवान की दृष्टि में पैसे का कोई महत्व नही हैं, धन का कोई महत्व नही हैं, बल का कोई महत्व नही हैं, कोई व्यक्ति ऊँचे औहदे पर हो उसका कोई महत्व नही हैं। उनकी दृष्टि में तो केवल और केवल भाव का महत्व हैं। बिना भाव रीझे नही नटवर नन्द किशोर।
एक बार मन में आया की वापिस लौट चलूँ। फिर कहते हैं नही नही, मेरे प्रभु तो प्रेम की मूर्ति है। मैं उनसे मिलकर आऊंगा। सुदामा जी को चलते चलते शाम हो गई। सुदामा जी एक पेड़ के नीचे बैठ गए रात्रि का प्रहार था तो भगवान को याद करते करते सो गए। इधर भगवान भी सुदामा को याद कर रहे थे।
गुरुदेव कहते है इस बात को अच्छी तरह याद रखना अगर तुम अपने आराध्य को याद करते हो तो भगवान भी अपने भक्त को याद करता है। ऐसा नही है की भगवान याद ना करे।
भगवान ने सोचा मेरा मित्र थक कर सो गया है और गहरी नींद में है। भगवान ने योग माया को आज्ञा दी है की तुम जाओ और मेरे मित्र को द्वारिका में पहुँच दो।
योग माया ने भगवान को द्वारिका में पहुंचा दिया। जब सुबह हुई तो सुदामा जी ने देखा की चारों और महल ही महल खड़े है। सुदामा जी महाराज सोचते है की हम तो एक पेड़ के नीचे सोये थे लेकिन यहाँ तो महल ही महल है।
सुदामा जी ने राहगीर से पूछा की भैया, ये कोनसा नगर है। तो लोगो ने कहा ये द्वारिका है। सुदामा बोली की ये द्वारिका है तो हमारे कन्हैया का मकान कोनसा है? राहगीरों ने मना कर दिया। सुदामा जी सबसे पूछ रहे है लेकिन कोई नही बता रहा की कन्हैया का मकान कौनसा है। दोपहर हो गई सुदामा जी को। सुदामा जी के पास एक यादव आये और बोले की हे ब्राह्मण देवता! मैं सुबह से देख रहा हूँ। आप किसका पता पूछ रहे है?
सुदामा जी बोले की यहाँ कोई मेरे मित्र कन्हैया का मकान नही जनता क्या?
वो बोला की ये सब महल आपके मित्र श्रीकृष्ण के है। आप जिस भी महल में जाओगे आपको आपके मित्र कन्हैया का ही दर्शन होगा। सबसे बड़ी रानी रुक्मणी जी है। आप वहां चले जाइये। सुदामा जी को बताकर वो चला गया।
अब सुदामा जी महाराज महल के दरवाजे पर पहुंचे है। द्वारपालों ने अंदर जाने से रोक दिया।
अरे ब्राह्मण! आप कौन हो? कहाँ से आये हो? कहाँ जाओगे?
सुदामा जी कहते है भैया, आप अंदर जाकर *श्रीकृष्ण* से केवल इतना कह देना की तेरे बचपन का मित्र सुदामा मिलने आया है। मेरा कन्हैया सब कुछ समझ जायेगा। उसे ज्यादा बताने की आवश्यक्ता नहीं है।
द्वारपाल अंदर गया। भगवान सिंहासन पर बैठे है। उस द्वारपाल ने भगवान को प्रणाम किया और उसकी दीन दशा का वर्णन किया है।
*सीस पगा न झगा तन में प्रभु,*
*जानै को आहि बसै केहि ग्रामा।*
*धोति फटी-सी लटी दुपटी अरु,*
*पाँय उपानह की नहिं सामा॥*
*द्वार खड्यो द्विज दुर्बल एक,*
*रह्यौ चकिसौं वसुधा अभिरामा।*
*पूछत दीन दयाल को धाम,*
*बतावत आपनो नाम सुदामा॥*
नरोत्तमनाम के कवि ने सुदामा जी की दशा का बड़ा सुन्दर वर्णन किया है। आप सभी भाव में डूबकर अर्थ समझिय-
द्वारपाल ने कहा की प्रभु द्वार पर एक ब्राह्मण खड़ा है, जिसके सर पर ना पगड़ी है और तन पर एक पुराना सा वस्त्र है। फटी हुई धोती है जिसकी हालत जीर्ण-शीर्ण है। और तो और पैरो में जूते, चप्पल भी नही हैं। जिसके पैरों में से बिवाइयां फट रही हैं। यहाँ के वैभव को देख कर आश्चर्यचकित हो रहा हैं। आपके बारे में पूछ रहा हैं और उसने अपना नाम सुदामा बताया हैं।
जैसे ही भगवान *श्रीकृष्ण* नाम सुना तो अपने सिंहासन से कूद पड़े और सुदामा-सुदामा कहते हुए द्वार की और दौड़े चले जा रहे हैं।इधर सुदामा ने सोचा की काफी देर हो गई क्या पता *श्रीकृष्ण* ना आये तो वापिस चल दिए हैं।
भगवान *श्रीकृष्ण* के पैरो में ना कोई चप्पल हैं ना कोई जूती। मुकुट गिर गया भगवान का और कहीं पर पीताम्बर उलझ रहा हैं। *श्रीकृष्ण* का मन सुदामा से मिलने को बेचैन हैं।
भगवान *श्रीकृष्ण* बारे होकर मतवारे होकर भाग रहे हैं दौड़ रहे हैं, गिर पड़ भी रहे हैं। भगवान को कोई होश नही। जब भगवान की ये दशा सभी रानियों ने , द्वार पालों ने देखि तो सब देखते ही रह गए।
आज अपने मित्र से मिलने जा रहे हैं बस। जैसे ही द्वार पर पहुंचे तो सुदामा जी वहां नही हैं । द्वार पालों से पूछा की मेरा मित्र सुदामा कहाँ गया?
द्वार पाल पालो ने बताया की सुदामा जी अभी ही यहाँ से निकले हैं।
भगवान दौड़े और उन्हें सुदामा दिखाई दिया। भगवान ने आवाज लगाई जोर से सुदामा , सुदामा। जब सुदामा ने मुड कर देखा तो भगवान ने अपने अंक में सुदामा को भर लिया और गले से लगा लिया। भगवान रोये जा रहे हैं। रानियां सोच रही हैं ऐसा कौन आया हैं की बलराम जी जैसा सामान दे रहे हैं।
भगवान ने कहा सुदामा तुम्हे अब याद आई। सुदामा जी बोले की मित्र याद तो बहुत आती थी, रोज आती हैं पर तुमसे मिल नही पाया। मुझे माफ़ कर दो कन्हैया।
भगवान सुदामा को अंदर महल लेकर गए हैं। और जिस सिंहासन पर खुद बैठते हैं उसी पर सुदामा को बिठाया हैं। भगवान सुदामा के चरणो में बैठ गए हैं। भगवान एक ब्राह्मण का सत्कार रहे हैं। भगवान कह रहे हैं ये महान पुरुष हैं मैं इनके चरण धोऊंगा ।
गुरुदेव कहते हैं की घर में कोई भी बड़ा व्यक्ति आये। संत जन। गुरु जन आये। उनके चरण जरूर धोवे। क्योंकि संतो के चरणो में सब कुछ निवास करता हैं। उनके चरणो में बहुत शक्ति हैं। व्यक्ति की पूजा उसके आचरण से हैं। क्यों चरणो में हम नमन करते हैं। क्योंकि चरणों में आचरण होता हैं। जिसका आचरण नही उसकी क्या पूजा?
भगवान ने देखा की सुदामा जी के चरणो में कांटे लगे हुए हैं। छाले पड़े हुए हैं और पैरों की बिवाइयां फट रही हैं। जगह-जगह से रक्त टपक रहा था। भगवान ने पूछा की मित्र इतने दिन आप कहाँ रहे? मुझसे मिलने क्यों नही आये? आप मुझे क्यों भूल गए?
*”ऐसे बेहाल बेवाइन सों पग,*
*कंटक-जाल लगे पुनि जोये।*
*हाय! महादुख पायो सखा तुम,*
*आये इतै न किते दिन खोये॥*
*देखि सुदामा की दीन दसा,*
करुना करिके करुनानिधि रोये।*
*पानी परात को हाथ छुयो नहिं,*
*नैनन के जलसों पग धोये।”*
भगवान *श्रीकृष्ण* ने अपनी आँखों के आंसुओं से सुदामा जी के पैर धोये हैं। इतने आंसू भगवन के गिरे हैं। भगवान भी रोने के लिए तैयार हैं लेकिन आप उनसे प्रेम तो करो। उन्हें याद तो करो। उनके लिए आंसूं तो आये। जब उनकी याद में आंसू आएंगे तो भगवान भी आपको याद करके रोयेंगे।
सुदामा भी कहने लगे प्रभु आप इतना सम्मान दे रहे हो। मैं तो सोच रहा था की आप मिलोगे भी या नही। इतना कह कर सुदामा जी भी रोने लगे और कहते हैं भगवान आप मुझसे महाराजा जैसा व्यवहार क्यों कर रहे हो।
इस तरह से दोनों मित्र प्रेम में डूबे हुए हैं। सुदामा जी महाराज *श्रीकृष्ण* जी से कहते है तू प्रेम ही देता है, प्रेम ही लेता है, प्रेम ही खाता है, प्रेम ही पीता है, प्रेम में सोता है और प्रेम में ही जागता है, प्यारे तू प्रेम से ही बना है और प्रेम में सना है। तू साक्षात प्रेम की मूरत है।
सुदामा जी बोले की हमने सुबह से स्नान नही किया हैं। आप एक रस्सी दे दो, एक कुआँ बताओ और एक बाल्टी दे दो। मैं स्नान करके आता हूँ। इतने भोले हैं।
भगवान कहते हैं मित्र आपको किसी कुआँ पर जाने की जरुरत नही हैं मैं आपको यही स्नान करवा देता हूँ।
भगवान ने उसी समय अपनी सभी रानियों को आज्ञा दी की हमारे मित्र आये हैं तुम जाओ और हमारे मित्र के लिए स्नान करने के लिए पानी लेके आओ।
सभी रानियां दौड़कर गई और एक एक कलश जल लेकर आई। अब सुदामा जी महाराज ने दूर से लम्बी लाइन देखि जिसका छोर भी नही दिखाई दे रहा है।
सुदामा जी को ऐसा लगा की द्वारिका की स्त्रियां है और भगवान का अभिषेक करने के लिए जल लेकर आती होंगी। सुदामा जी महाराज ने भगवान को पूछा की मित्र ये सब कौन है?
*श्रीकृष्ण* बोले की ये सब आपकी भाभियाँ है। सुदामाजी बोले की कितनी है?
*श्रीकृष्ण* बोले की बस थोड़ी सी है।
*१६,१०८* ही है।
सुदामा जी बोले की भैया मैं तेरी भाभी से मिलकर भी नही आया हूँ। एक कलश हो तो स्नान करूँ। दो कलश हो तो स्नान करूँ। यहाँ तो *१६,१०८* कलश है यदि इतने कलशों से स्नान करूँगा तो डेढ़ पाँव हड्डी को शरीर है यहीं
*” गोविन्दाय नमो नमः। “*
कन्हैया मैं घर तक भी नही पहुँच पाउँगा।
तब भगवान ने सभी रानियों से कहा की देखो री, हमारे मित्र सुदामा बैठे है और तुम में से कोई एक हमारे मित्र पर जल डाल दो। रानियां बोली की आप आज्ञा कीजिये कौनसी रानी जल डाले?
भगवान बोले की अब ये भी धर्म संकट। एक का नाम ले तो दूसरी नाराज हो जाये। की अच्छा भगवान इस रानी से ज्यादा प्रेम करते
है।
पास में उद्धव जी महाराज खड़े थे भगवान ने कहा की उद्धव तुम मेरे मित्र को स्नान करवाओ। अब उद्धव जी बहुत ज्ञानी है। उन्होंने एक खाली कलश मंगाया और सभी रानियों के कलशों से एक एक चम्मच जल लिया और उस खाली कलश को भर दिया। और भगवान को दिया की प्रभु अब स्नान करवाइये। भगवान ने अब सुदामा जी को स्नान करवाया। सुंदर कपडे पहनाये। और धुप दीप से अपने मित्र की पूजा की है।
सुदामा जी बोली की यार तू आरती उतार रहा है और यहाँ पेट में चूहे कूद रहे है। मुझे भूख लगी है। देखिये बहुत भोले है। कोई संकोच नही है। भगवान को कह दिया की मुझे भूख लगी है।
भगवान बोले ठीक है आप बेठिये आपके लिए भोजन का प्रबंध कर देता हूँ। महल में हजारो नौकर है लेकिन भगवान ने किसी से सेवा नहीं ली। खुद ही अपने हाथों से २ आसान बिछाये। २ चौकियां लगाई। और खाना परोसा है। और अपने ही हाथों से भोजन करवाया है।
भोजन के बाद विश्राम हुआ है। और विश्राम करने के बाद भगवान *श्रीकृष्ण* और सुदामा जी पलंग पर बैठे है और रुक्मणी जी पंखा कर रही है।
भगवान सुदामा जी से वार्तालाप करने लगे है। लेकिन देखिये सुदामा जी ने ४ मुट्ठी चावल भगवान को अब तक भेंट नही दिए है। काख में उस पोटली को दबाये हुए है। इसलिए भेंट नही कर रहे है की श्रीकृष्ण द्वारिका का राजा है। और मैं एक गरीब हूँ। अगर में इन्हे चावल अर्पण करता हूँ तो कहीं मेरे कृष्ण का मेरे गोविन्द का अपमान न हो जाये। क्योंकि मेरे गोविन्द को लोग बड़ी-बड़ी वस्तुए देते है। क्या मैं चार मुट्ठी चावल दूंगा भगवान को? ये रानियां क्या सोचेगी की बस ये चार मुट्ठी चावल लाया है भगवान के लिए। सिर्फ इस बात को सोच के सुदामा जी चावल की पोटली काख में दबाये हुए है।
लेकिन भगवान एक बात यहाँ अपने मित्र को बताना चाहते है की आपके जीवन में गरीबी क्यों आ गई?
भगवान बोले की मित्र आपको वो दिन याद है जब तुम और मैं उज्जैन में संदीपन ऋषि के आश्रम में पढ़ते थे।
सुदामा जी बोले हाँ याद है मित्र।
गुरु माँ की आज्ञा से हम वन में लकड़ी काटने गए थे। एक पेड़ पर बैठकर तुम लकड़ी काट रहे थे और एक पेड़ पर बैठ कर तुम लकड़ी काट रहे थे।
देखिये भगवान बात तो सुदामा से कर रहे हैं लेकिन भगवान की नजर उस चावल की पोटली पर है। सुदामाजी ने देखा की ये बात तो मुझसे कर रहा है पर इसकी नजर तो और कहीं है। कहीं मेरी पोटली तो नही दिख रही। सुदामा जी ने देखा तो थोड़ा सा कपडा दिख रहा था। सुदामा जी ने पोटली थोड़ी अंदर कर ली ।
भगवान फिर वार्तालाप करने लगे की मित्र उसी समय बहुत जोर से वर्षा होने लगी थी। तुम भी पेड़ के नीचे बैठ गए थे और मैं भी बैठ गया था। और गुरु माँ ने कुछ भुने हुए चने दिए थे और कहा था की भूख लगे तो खा लेना।
जब तुमको भूख लगी तो तुम चने खाने लगे और जब मैंने तुमसे पूछा की गुरु माँ ने कुछ खाने को दिया है क्या? मुझे जोर से भूख लगी है।
तुमने कहा था की मित्र गुरुमाँ ने कुछ खाने को नही दिया।
मैंने ये भी कहा था की मुझे दाँतो से कुछ खाने की आवाज आ रही है।
तो तुमने कहा था ये की जो जोर से वर्षा हो रही है और ठंडी हवा चल रही है तो मुझे ठण्ड लग रही है। जिससे मेरे दांत कटकटा रहे है।
इस तरह रात हो गई थी और वर्षा इतनी भयंकर थी की हम आश्रम पर नही जा सकते थे। जब रात्रि बीत गई थी तब हमारे ना होना का समाचार पाकर गुरुदेव समेत कई शिष्य हमारी खोज में आये थे। जब वे हमारे पास पहुंचे तो हमे संकटपूर्ण अवस्था में पाया था।
जब गुरुदेव पास आये तो उन्होंने कहा था की अद्भुत बात हैं मेरे प्यारे बच्चो! तुमने मेरे लिए इतना कष्ट उठाया हैं। प्रत्येक व्यक्ति अपने शरीर की देखभाल को सर्वाधिक महत्व देता हैं किन्तु तुमने गुरु के प्रति आज्ञा को विशेष महत्व दिया हैं। आज में तुम्हारे से बहुत प्रसन्न हुआ हूँ। इस तरह से गुरुदेव के साथ सभी आश्रम लोटे हैं। तब गुरु माँ ने *श्रीकृष्ण* और सुदामा दोनों को गले से लगा लिया हैं।
भगवान *श्रीकृष्ण* गुरु माँ से कहते हैं की मैया मुझे कुछ खाने को दे जोर की भूख लगी हैं। माँ ने बोला अभी लाती हूं। फिर माँ अचानक पूछती हैं कान्हा जो मैंने भुने हुए चने दिए थे वो तुम दोनों सखाओं ने आपस में बाँट के खाए थे ना।
तब सुदामा जी ने कहा की नही मैया मुझे जोर की भूख लगी थी सब चने मैं ही खा गया था।
उसी समय गुरु माँ को क्रोध आया और श्राप दिया की सुदामा आज तूने भगवान के हिस्से की चीज खाई हैं तेरे जीवन में गरीबी बनी रहेगी।
भगवान की नजर अब भी चावल की पोटली पर है। सुदामा जी ने देखा तो वो पोटली और जोर से काख में दबाई लेकिन वो पोटली ही खुल गई। उसी समय भगवान उछले और चार मुट्ठी चावल की पोटली को छिन लिया है। भगवान ने बोला की मित्र आज तुम फिर वही गलती करने जा रहे थे जो बचपन में की थी। मेरी भाभी के दिए हुए चावल तुम क्यों छिपा रहे हो।
भगवान ने एक मुट्ठी चावल खाए और एक लोक का राज्य सुदामा को दे दिया। फिर दूसरी मुट्ठी चावल खाए तो दूसरे लोक का राज्य सुदामा को दे दिया।
श्रीमद भगवान में एक मुट्ठी चावल का वर्णन है। लेकिन संत महात्मा कहते है की नही कृष्ण ने २ मुट्ठी चावल खाए थे। जब तीसरे मुट्ठी चावल खाने लगे तो रुक्मणी जी के हाथ से पंखा छूट गया और बोली की प्रभु आपने एक मुठी चावल खाए तो एक लोक का राज्य दे दिया, २ मुट्ठी खाए तो २ लोक का राज्य दे दिया। अब तीसरे मुट्ठी चावल खा लोगे और तीनों लोको का राज्य सुदामा को दे दोगे तो सोचा है की आप कहाँ रहोगे।
गुरुदेव कहते है जब भगवान देने पर आते है ना तो सब कुछ दे देते है। खुद को भी दे देते हैं। लेकिन सच्ची निष्ठा से तुम भगवान के पास जाओगे तो कभी भी भगवान की कृपा से दूर नही जाओगे। एक निष्ट भाव से उनको याद करो। उनसे प्रेम करो।
भगवान ने रुक्मणी से कहा देवी आपके मुख से ये बात अच्छी नही लगती हैं। आज मेरा मित्र आया हैं तो आप मुझे रोक रहे हो।
तब रुक्मणी बोली की नही कन्हैया क्या केवल आपको ही अपने मित्र को कुछ देने का अधिकार हैं। मुझे नही हैं। तब एक मुट्ठी चावल रुक्मणी जी ने भी खाए ऐसा संत जान बताते हैं। और रुक्मणी जी तो साक्षात लक्ष्मी जी हैं। सुदामा जी के घर गई हैं और उनकी पत्नी बच्चो को हर तरह के धन धान्य से परिपूर्ण कर दिया हैं।
यहाँ भगवान ने भी अनंत किरपा की हैं सुदामाजी पर। अदृश्य कृपा की हैं आज सुदामा जी पर।
गुरुदेव कहते हैं की संसार का आदमी किसी के लिए कुछ करेगा तो गाता फिरेगा लेकिन भगवान किसी से कुछ नही कहते और अनत किरपा कर देता हैं। क्योंकि भगवान से ज्यादा कौन से दे सकता हैं भैया।
आज सुदामा जी महाराज भी भगवान की कृपा को समझ नही पाये। सुदामा जी महाराज आये तो २ – ४ दिन के लिए थे और ६ महीने हो गए।
एक दिन सुदामा जी कहते हैं कन्हैया अब हमे आज्ञा दीजिये। भगवान बोले की पधारिये। जाइये।
सुदामा बोले की कन्हैया ने एक बार भी नही कहा की २ – ४ दिन और रुक जा। अब आज्ञा दी हैं तो जाना ही पड़ेगा।
सुदामा जी ने पूछा कन्हैया तेरी भाभी को कुछ देना हो लेना हो या कुछ कहना हो तो बता दे।
कृष्ण बोले की हाँ भैया मेरी भाभी को दोनों हाथ जोड़ के मेरा प्रणाम दे दियो।
अब सुदामा जी बोले की ये कैसा द्वारिका का राजा हैं की कोरी राम-राम में भेज रहा हैं।
सुदामा जी अब चलने लगे हैं। और मन में सोच रहे हैं चलो अच्छा ही हुआ की कन्हैया ने कुछ नही दिया। नही तो दोस्ती की गरिमा खत्म हो जाती। और मेरी भी वैसे कुछ मांगने की या लेने की इच्छा नही थी।
इस तरह सोचते सोचते सुदामा जी महाराज अपने घर की और निकले। लेकिन जब पहुंचे तो बड़ा आश्चर्य हुआ की जैसे महल द्वारिका में खड़े थे वैसे ही सुदामा जी के गाँव में थे। सुदामा जी बोले कहीं में दोबारा घूम कर द्वारिका में तो नही आ गया। क्योंकि पृथ्वी गोल हैं। लोगों से पूछा की ये कोनसे राजा का नगर हैं।
लोग बोले की ब्राह्मण देवता ये सुदामा नगर हैं।
वहां पर एक बहुत सुंदर महल खड़ा हैं और महल की खिड़की पर उसकी पत्नी खड़ी हैं सुशीला। सुशीला ने अपने नौकरों को सुदामा को लेने के लिए भेजा।
जब सुदामा ने अपनी पत्नी को देखा तो गहनों से लदी खड़ी हैं। ये सब तुझे किसने दिया।
सुशीला बोली की आप तो द्वारिका गए थे और आपके पीछे से भगवान *श्रीकृष्ण* के कुछ सेवक आये और मुझे ये सब देकर चले गए।
सुदामा जी बोले की नही सुशीला तू सच बता, ये सब किसने दिया। यदि तू सच नही बताएगी तो मैं तुझे घर मैं नही रहने दूंगा।
सुशीला बोली की यदि आपको विश्वास नही हैं तो अपने मित्र से खुद ही पूछ लो।
सुदामा बोले की कहाँ हैं कन्हैया। सुशीला कहती हैं की अंदर ही बैठे हैं।
सुदामा बोले की वो तो द्वारिका में हैं। तो सुशीला अपने पति का हाथ पकड़ कर अंदर लेकर गई भगवान के मंदिर में और श्याम सुंदर की मूर्ति के सामने खड़ा किया और सुदामा जी बोले की आज तुझे मूर्ति से प्रकट होना पड़ेगा। अगर तू आज नही आया और तूने ये नही कहा की ये सारा धन तूने दिया हैं तो मैं सुशीला को घर में नहीं रखूँगा।
सुशीला और सुदामा दोनों ही भगवान की प्रार्थना करने लगे।
उसी क्षण भगवान प्रकट हो गए और सुदामा जी की आँखों में आंसू हैं। सुदामा जी ने कहा क्यों रे लाला ये सब तूने दिया हैं?
भगवान बोले क्यों मैं नही दे सकता क्या?
सुदामा बोले की जब आपकी मन की जानते ही हो तो आपने द्वारिका में क्यों नही बताया मुझे और चलते समय भी कोरी राम राम में विदा किया?
भगवान बोले देख सुदामा सच सच बताना की तेरे दिल में मुझसे कुछ लेने की इच्छा थी क्या?
सुदामा जी बोले बिलकुल नही प्रभु। आपकी कृपा ही काफी हैं मुझे कुछ नही चाहिए था।
कृष्ण जी बोले बस मैंने तुझे कुछ नही दिया हैं ये सब भाभी के लिए ही हैं।
जो भगवान ने इनता कहा तो सुदामा जी और सुशीला जी फुट फुट कर रोने लगे और भगवान के चरणो में प्रणाम किया हैं। दोनों ने दर्शनों को खूब लाभ लिया हैं और भगवान फिर वहां से अंतर्ध्यान हो गए हैं।
जितनी भी धन-सम्पति सुदामा को प्रभु ने दी थी सुदामा ने वह भगवान की सेवा में ही लगाई हैं। उसे खराब नही किया हैं। इस प्रकार अपनी पत्नी के साथ सुदामा जी ने अत्यंत शांतिपूर्ण जीवन बिताया और ऐश्वर्य को भगवान का प्रशाद मानकर सभी सुविधाओ का आनंद उठाया हैं।
सुदामा विप्र ने कहा हैं की भगवान अजेय हैं लेकिन अपने भक्तो द्वारा पराजित होने में स्वीकार करते हैं। इस तरह सुदामा जी का चरित्र पूर्ण हुआ हैं। जो लोग सुदामा जी की कथा सुनते हैं वो कर्म बंधन से छूटकर भगवान की भक्ति को प्राप्त करते हैं।
*” बोलिए सुदामा जी महाराज की जय “*
*” बोलो श्री द्वारकाधीश की जय “*
*” राधे राधे “*
*” जय श्रीकृष्ण “*