मैं पोस्टकार्ड हूं, 149 साल के बाद अब संकट में है मेरा वजूद

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मैं पोस्टकार्ड हूं, 149 साल के बाद अब संकट में है मेरा वजूद 
अबोहर [पंजाब] : 1 जुलाई ; धर्मवीर शर्मा राजू /अल्फ़ा न्यूज इंडिया ;--- मैं, पोस्टकार्ड हूं, 1 जुलाई 1879 में देश में शुरू किया गया। पहले ही वर्ष साढ़े 7 लाख पोस्टकार्ड बिके थे। कि सी जमाने में मैं किताबों के बीच व सिरहाने के नीचे बहुत ही आदर, प्यार व सत्कार के साथ संभाल कर रखा जाता था। संदेश भिजवाने का एकमात्र सस्ता जरिया था। धीरे-धीरे मेरी लोकप्रियता इतनी बढ़ी कि लोग त्यौहारों में मुझे ग्रीटिंग कार्ड की तरह इस्तेमाल करते तो वहीं सरकारी दफ्तरों से फरमान भी मैं पहुंचाने लगा। देश भर में मेरी धूम मच गई। धीरे-धीरे मैं देश के हर शहर से लेकर देश के हर गांव तक पहुंच गया। मुझ पर लिखा संदेश पढ़-पढ़ कर जहां नवविवाहिता अपने पति के नौकरी से लौटने के इंतजार में चूमा करती वहीं मां के लिए बेटे का लिखा संदेश दूर-दराज तक पहुंचाता रहा हूं। यह सिलसिला चलता रहा। धीरे-धीरे अमीर घरानों में टेलीफोन ने जगह ली तो मैं मध्यमवर्गीय लोगों का संदेश वाहक बन गया। रोजाना लाखों पोस्टकार्ड डाकघरों के लाल डिब्बे में पहुंचते। मेरा बढ़ता क्रेज इतना चर्चित हुआ कि सियासी पार्टियों ने चुनाव के दौरान मुझे वोट पाने के लिए भेजने लगे। दूर-दराज गांवों चाहे वो हिमाचल के गोद में बसा गांव हो या फिर रेगिस्तान में, कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी या उत्तर प्रदेश तक लोग मेरे आने का इंतजार किया करते थे। टेलीग्राम में लोग गिने-चुने शब्दों से संदेश भेजते थे, मेरे मार्फत दिल की बातें किया करते थे। कितने बेहतरीन शब्दों से लोग मेरी शुरूआत करते थे। सबसे ऊपर भगवान का नाम लिखा होता था उसके बाद बड़ों को चरण स्पर्श व छोटों के लिए मोहब्बत का पैगाम होता था।  क्या मैं 150वां जन्म दिन मना पाऊंगा आज कल तो लोग ‘लाइव’ हो गए हैं ऐसे में पहली जुलाई 2018 को जब मैं 149 वर्ष का हो चला हूं तो एक ही फिक्र खाई जा रही है कि क्या मैं 150 वां जन्म दिन मना पाऊंगा, क्योंकि अब तो पोस्टकार्ड को कोई तवज्जो नहीं देता। खैर, मेरे भारत सदैव उन्नति में रहे यही दुआ मैं पहले भी करता था, और आज भी कर रहा हूं। बस अब अपने बारे में क्या लिखूं। दिल रो रहा है, दिमाग कह रहा है कि मैं 149वें जन्म दिन पर जश्र मनाऊं या मातम। कुछ समझ नहीं आा रहा है। यह दर्द है पोस्टकार्ड का। अगर वो लिख कर अपना संदेश किसी को खुद भेजा पाता तो शायद यही लिखता। यह हाइटेक भारत की तस्वीर का दूसरा पहलू तो है लेकिन वो पुराना दर्द भी है जो 149 साल को हो गया है। बता दें कि 1 जुलाई 1852 में सिंध प्रांत में पहला डाक टिकट जहां जारी किया गया वहीं 1 जुलाई 1881 में पहली बार टेलीफोन से अंतर्राष्ट्रीय कॉल की गई थी।  चिठ्ठियां बार-बार पढ़ते थे लोग  इतिहास कार व साहित्यकार एवं विश्व के श्रेष्ठ 10 संकलनकत्र्ताओं में शुमार देवदर्द कहते हैं कि पहले चि_ियां लिखवाने के लिए अधिकांश लोग दूसरों के सहारे रहा करते थे। मैंने भी बचपन में बहुत सी चिठ्ठियां लिखी हैं। मेरे पास 100 साल से पुराने लिखे हुए पोस्टकार्ड हैं जिन्हें पोस्ट किया गया था। पोस्टकार्ड की कलैक्शन मेरे पास है। कई पोस्टकार्ड में लिखे शब्द जैसे मोती की तरह पिरोया गया हो। पोस्टकार्ड का किसी जमाने में बहुत क्रेज होता था, लेकिन समय के साथ ही पोस्टकार्ड का वजूद खत्म होता जा रहा है।  मोबाइल क्रांति ने उजाड़ दिया मेरा सुहाग धीरे-धीरे समय ने ऐसी करवट ली की लोग मुझसे दूर होने लगे। मोबाइल क्रांति ने तो मेरा सुहाग ही उजाड़ दिया। पहले मोबाइल की कॉल 8 रुपए प्रति मिनट थी, तब भी मैंने अपना वजूद बचाए रखा। पेजर आया तब भी मुझे ज्यादा नुक्सान नहीं हुआ। 2000 के बाद तो मेरी हालत पतली होती गई। सोशल मीडिया में फेसबुक, वाट्सएप से लेकर मोबाइल की फ्री कॉल व मैसेज थोक भाव में देश के अमीर घरानों ने लोगों को उपहार में बांटे तो मैं धीरे-धीरे सिमटता गया। आज हालत यह है कि मुझे डाकघर से खरीदने वाले इक्क-दुक्का लोग ही होते है, वो भी चौथा-उठाला की सूचना देने के लिए मुझे इस्तेमाल करते हैं। जो प्रेम शब्दों के जरिए मैं घरों तक पहुंचाया करता था वो अब शब्द भी नहीं रहे और उतना क्रेज भी नहीं रहा। 

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