भक्ति भगवान के बस में नहीं होती भगवान तो भक्तों के बस में होते हैं:- रसिक महाराज

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चंडीगढ़: 25 जुलाई:- अल्फा न्यूज़ इंडिया डेस्क:- उत्तराखंड के बद्रीनाथ स्थित नरसिंह पीठाधीश्वर महाराज रसिक महाराज जी ने धर्म चर्चा के दौरान भक्त और भगवान के बीच भक्ति से तू का बखान करते हुए कहा की भगवान अपने भक्तों के बस में रहते हैं भगवान के बस में भक्ति कभी नहीं रहती है अर्थात भक्त किस भाव से किस तरह की किस मनोरथ के तहत भक्ति करता है यह भक्त के बस में रहता है भक्ति से भवी भूत होकर भगवान अपने भक्तों के कारण सिद्ध करते हैं उनकी मनोकामना को पूर्ण करते हैं और उन पर अपने सीने की अनुकंपा बनाए रखते हैं यही भगवान की सहज सरल और सहज वृत्ति होती है अपने सच्चे सूची और समूचे भक्तों के प्रति।।

“सदा भवानी दाहिने सन्मुख रहें गणेश,पाँच देव रक्षा करें, ब्रम्हा विष्णु महेश”। 🌹

💐💐 जय श्री राधे राधे 🌹🙏🌹
प्रबल प्रेम के पाले पड़ के, प्रभु को नियम बदलते देखा।
अपना मान भले टल जाए, भक्त का मान न टलते देखा॥

(आज से लगभग एक सहस्त्र वर्ष पहले की श्री रंगनाथ जी के मंदिर की यह घटना बिलकुल सत्य है तथा भक्तमाल में भी इसका वर्णन है।)

एक समय श्री रंगनाथ मंदिर के महंत जो की प्रभु के प्रिय भक्त भी थे, अपने कुछ शिष्यों को साथ लेकर दक्षिण में तीर्थदर्शन करते हुए एक नगर में पहुंचे।

संध्या का समय था, मार्ग में बहुत ही रमणीय उपवन देख महंत जी का मन हुआ यही कुछ देर विश्राम कर, भोजन प्रसाद बनाकर हरि नाम संकीर्तन किया जाये।

संयोग से वह स्थान एक वेश्या का था, वेश्या वही पास में भवन में रहती थी।

महंत जी और उनके शिष्यों को इस बात का पता नहीं था की जिस जगह वह रुके हैं, विश्राम व् भोजन प्रसादी कर रहे है वो स्थान एक वेश्या का हैं।

वेश्या भी दूर से अपने भवन से हरि भक्तो की क्रियाओं का आनंद ले रही थी।

द्वार पर बहुत सुन्दर-सुन्दर श्वेत वस्त्र धारण किये हुए, अपने साथ अपने ठाकुर जी को भी लाये, आज मानो संतो के प्रभाव मात्र से पापआसक्त उस वेश्या के ह्रदय में भी प्रभु का प्रेम प्रस्फुटित हो रहा हो।

स्वयं को बड़भागी जान उसने संतो को विघ्न न हो ये जानकर तथा अपने बारे में कुछ न बताकर दूर से ही अपने भवन से ठाकुर जी के दर्शनों का आनंद लेती रही।

जब सभी संतो का भोजन प्रसाद व् संकीर्तन समाप्त हुआ तो अंत में वह वेश्या ने एक थाल में बहुत सी स्वर्ण मुद्राएँ लेकर महंत जी के समक्ष प्रस्तुत हुई और महंत जी को प्रणाम किया व बताया की ये स्थान मेरा ही है, में यहाँ की स्वामिनी हुँ।

महंत जी को बड़ी प्रसन्नता हुई ये जानकर और आभार व्यक्त करते हुए उन्होंने भी कहा की यह बहुत ही रमणीय स्थान हैं, हमारे ठाकुर जी को भी बड़ा पसंद आया यह स्थान, संकीर्तन में भी बड़ा मन लगा।

अब वेश्या ने वो स्वर्ण से भरा हुआ थाल महंतजी की सेवा में प्रस्तुत किया।

संतो का स्वाभाव होता है वो बिना जाने किसी भी अयोग्य व्यक्ति का धन या सेवा नहीं लेते हैं, और शास्त्र भी अनुमति नहीं देता हैं।

अतः महंत जी ने उस वेश्या से कहा हम बिना जाने ये धन स्वीकार नहीं कर सकते, आपने किस तरह से यह धन अर्जित किया है?

वेश्या ने भी द्वार पर आये संतो से झूठ न कहकर सारी बात सच-सच बता दी की, में एक वेश्या हूँ, समाज के आसक्त पुरुषों को रिझाती हूँ , उसी से मैंने यह धन अर्जित किया है।

इतना कहकर वह महंत जी के चरणों में पूर्ण समर्पण करते हुए फुट -फुट कर रोने लगी, व महंतजी से श्री ठाकुरजी की भक्ति का दान देने का अनुग्रह करने लगी।

महंत जी को भी दया आयी उसके इस अनुग्रह पर, लेकिन वे बड़े धर्म संकट में पड़ गये, यदि वेश्या का धन स्वीकार किया तो धर्म की हानि होगी और यदि शरण में आये हुए को स्वीकारा नहीं, मार्ग नहीं दिखाया तो भी संत धर्म की हानि।

अब महंत जी ने अपने रंगनाथ जी का ध्यान किया और उन्ही को साक्षी कर वेश्या के सामने शर्त रखी और कहा हम तो ये धन स्वीकार नहीं कर सकते यदि तुम ह्रदय से अपने इस कुकर्म को छोड़ना ही चाहती हो तो ऐसा करो इस पाप कर्म से अर्जित की हुई सारी संपत्ति को तुरंत बेचकर जो धन आये उससे हमारे रंगनाथ जी के लिए सुन्दर सा मुकुट बनवाओ।

यदि हमारे प्रभु वह मुकुट स्वीकार कर ले तो समझ लेना उन्होंने तुम्हे माफ़ करके अपनी शरण प्रदान की।

वेश्या का मन तो पहले ही निर्मल हो चूका था, महंत जी की आज्ञा शिरोधार्य कर तुरंत ही सम्पूर्ण संपत्ति बेचकर उसने रंगनाथ जी के लिये ३ लाख रुपये का सुन्दर मुकुट बनवाया।

कुछ ही दिनों में वेश्या ने मुकुट बनवाकर अपने नगर से महंत जी के साथ रंगनाथ जी मंदिर के लिये प्रस्थान किया।

मंदिर पहुंचते ही जब यह बात समस्त ग्रामवासी और मंदिर के पुजारियों को पता चली की अब वेश्या के धन से अर्जित मुकुट रंगनाथजी धारण करेंगे तो सभी अपना-अपना रोष व्यक्त करने लगे, और महंत जी और उस वेश्या का मजाक उड़ने लगे।

महंत जी सिद्ध पुरुष थे और रंगनाथजी के सर्वविदित प्रेमी भक्त भी थे तो किसी ने उनका विरोध करने की चेष्ठा नहीं की।

अब देखिये जैसे ही वो वेश्या मंदिर में प्रवेश करने लगी, द्वार तक पहुंची ही थी की पूर्व का पाप बीच में आ गया, वेश्या वहीं ‘रजस्वला’ हो गई।

माथा पिट लिया अपना, फुट फुटकर रोने लगी, मूर्छित होके भूमि पे गिर पड़ी।

हाय महा- दुःख, संत की कृपा हुई, रंगनाथ जी का अनुग्रह प्राप्त होने ही वाला था की रजस्वला हो गई , मंदिर में जाने लायक ही न रही।

सब लोग हसीं उड़ने लगे, पुजारी भी महंत जी को कोसने लगे।

अब महंत जी भी क्या करते, उन्होंने वेश्या के हाथ से मुकुट लेकर स्वयं रंगनाथ जी के गर्भगृह पहुंचकर श्री रंगनाथ जी को मुकुट पहनने लगे।

इधर महंत जी बार-बार मुकुट प्रभु के मस्तक पर धराए और रंग जी धारण ही ना करें, मुकुट बार-बार रंगनाथ जी के मस्तक से गिर जाये।

अब तो महंत जी भी निराश हो गये सोचने लगे हमसे ही बहुत बड़ा अपराध भया है, शायद प्रभु ने उस वेश्या को स्वीकार नहीं किया, इसीलिये ठाकुर जी मुकुट धारण नहीं कर रहे।

अपने भक्त को निराश देखकर रंगनाथ जी से रहा नहीं गया।

श्री विग्रह से ही बोल पड़े:- बाबा आप निराश मत हो, हमने तो उसी दिन उस वेश्या को स्वीकार कर लिया था जिस दिन आपने उसे आश्वासन देकर हमारे लिए मुकुट बनवाने को कहा था।

महंतजी ने बोला – प्रभु जब स्वीकार कर लिया है तो फिर क्यों उस बेचारी का लाया हुआ मुकुट धारण क्यों नहीं कर रहे हो।

रंगनाथ जी बोले मुकुट तो हम उसी वेश्या के हाथ से धारण करेंगे, इतने प्रेम से लायी हे तो पहनेगे भी उसी के हाथ से, उसे तो तू बाहर ही छोड़कर आ गया और खुद मुकुट पहना रहा है।

महंत जी ने कहा – प्रभु जी वो रजस्वला है, वो मंदिर में नहीं प्रवेश कर सकती।

अब तो रंगनाथ जी जिद करने लगे, इसी समय लाओ हम तो उसी के हाथ से पहनेंगे मुकुट।

मंदिर के समस्त पुजारियों ने प्रभु की ये आज्ञा सुन दाँतो तले उंगलिया दबा ली, सब विस्मित से हो गये, सम्पूर्ण मंदिर में हाहाकार मच गया, जिसने सुना वो अचंभित हो गया।

रंगनाथ जी की आज्ञा को शिरोधार्य कर सैकड़ो लोगो की उपस्थिति में उस वेश्या को सम्मान पूर्वक मंदिर में प्रवेश कराया गया।

अपने हाथो से वेश्या रंगनाथ जी को मुकुट धारण कराने लगी, नैनो से अविरल अश्रु की धराये बह रही थी।

कितनी अद्भुत दशा होगी……

रंगनाथ जी भक्त की इसी दशा का तो आनंद ले रहे थे।

रंगनाथ जी का श्री विग्रह बहुत बड़ा होने के कारण ऊपर चढकर मुकुट पहनाना पड़ता है, भक्त के अश्रु से प्रभु के सम्पूर्ण मुखारविंद का मानो अभिषेक हो गया।

वेश्या के मुख से शब्द नहीं निकल रहे, नयन अविरल अश्रु बहा रहे है, अवर्णीय दशा है।

आज रंगनाथ जी ने उस प्रेम स्वरुप भेट स्वीकार करने हेतु अपना मस्तक नीचे झुका दिया और मुकुट धारण कर उस वेश्या को वो पद प्रदान किया जिसके लिए बड़े-बड़े देवता, संत-महात्मा हजारो वर्ष तप-अनुष्ठान करते है पर उन महाप्रभु का अनुग्रह प्राप्त करने में असमर्थ रहते है।

कोटि-कोटि वंदन है ऐसे संत को जो उस अन-अधिकारी वेश्या पर अनुग्रह कर श्रीगोविन्द के चरणों का अनुसरण करवाया…..

वास्तव में प्रभु का ये ही शाश्वत सत्य स्वरुप है, सिर्फ और सिर्फ प्रेम से ही रिझते है, लाख जतन करलो, हजारो नियम कायदे बनालो परन्तु यदि भाव पूर्ण भक्ति नहीं हैं तो सब व्यर्थ ही है।

दीनदयाल , करुणानिधान प्रभु तक जब किसी भक्त की करुणा पुकार पहुंचती है तो अपने आप को रोक नहीं पाते और दौड़े चले आते है निजभक्त के पास।

प्रभु तो स्वयं प्रेम की डोरी में स्वयं बंधने के लिए तत्पर रहते है परन्तु उन्हें निश्चल प्रेम में बांधने वाला कोई विरला ही होता है।

जिनके पूर्ण समर्पण के भाव से ये करूणानिधि रीझते है।

प्रबल प्रेम के पाले पड़ के, प्रभु को नियम बदलते देखा।
अपना मान भले टल जाए, भक्त का मान न टलते देखा॥

जिनके चरण कमल कमला के, करतल से ना निकलते देखा।
उसको गोकुल की गलियों में, कंटक पथ पर चलते देखा॥

जिनकी केवल कृपा दृष्टी से सकल विश्व को पलते देखा।

शेष-गणेश, महेश-सुरेश ध्यान धरें पर पार न पावें,
ताते बृज वोह हरी आये वृन्दावन की रास रचावें।

जिनकी केवल कृपा दृष्टी से सकल विश्व को पलते देखा।
उसको गोकुल के माखन पर सौ-सौ बार मचलते देखा॥

जिनका ध्यान बिरंची शम्भू सनकादिक न सँभालते देखा।
उसको बाल सखा मंडल में लेकर गेंद उछालते देखा॥

जिनकी वक्र भृकुटी के भय से सागर सप्त उबलते देखा।
उसको माँ यशोदा के भय से अश्रु बिंदु दृग ढलते देखा॥

प्रभु को नियम बदलते देखा, प्रभु को नियम बदलते देखा….

🙏🙏

आपका दिन मंगलमय हो…✍🏻🌹
🌹हरे कृष्ण
🌅🕉🌅🕉🌅🕉

👇महामंत्र सदैव जपिए और खुश रहिए
दूसरों को भी जपने को बोल अपना जीवन सफल बनाइए।

हरे कृष्ण हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण हरे हरे !
हरे राम हरे राम, राम राम हरे हरे !
-:×:–जय जय श्री राधे””श्रीजी की चरण सेवा” 🙏 साभार व्हाट्सएप यूजर।।।।

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