मानव शरीर का मालिक कौन ? पांच तत्व, जननी या सृष्टि रचयिता भगवान रचनाकार :–पंडित कृष्ण मेहता

Loading

चंडीगढ़:- 18 सितंबर:- अल्फा न्यूज़ इंडिया डेस्क पस्तुति:—* बड़ें भाग मानुष तनु पावा। सुर दुर्लभ सब ग्रंथन्हि गावा॥

साधन धाम मोच्छ कर द्वारा। पाइ न जेहिं परलोक सँवारा॥

भावार्थ:-बड़े भाग्य से यह मनुष्य शरीर मिला है। सब ग्रंथों ने यही कहा है कि यह शरीर देवताओं को भी दुर्लभ है (कठिनता से मिलता है)। यह साधन का धाम और मोक्ष का दरवाजा है। इसे पाकर भी जिसने परलोक न बना लिया,।

मानव शरीर पर किसका अधिकार ?
प्राय: मन में यह सवाल उठता है कि इस शरीर पर किसका अधिकार है? यह शरीर क्या पिता का है या माता का है या माता को भी पैदा करने वाले नाना का है या नानी का है या अपना स्वयं का है ?

पिता कहते हैं कि ‘मेरे वीर्य से यह उत्पन्न हुआ है, इसलिए इस शरीर पर मेरा अधिकार है ।’

मां कहती है कि ‘मेरे गर्भ से यह उत्पन्न हुआ है, इसलिए यह मेरा है ।’

पत्नी कहती है कि ‘इसके लिए मैं अपने माता-पिता को छोड़कर आयी हूँ, इससे मेरी शादी हुई है, मैं इसकी अर्धांगिनी हूँ, अतएव इस पर मेरा अधिकार है ।’

अग्नि कहती है कि ‘यदि शरीर पर माता-पिता या पत्नी का अधिकार होता तो प्राण निकलने के बाद वे इसे घर में क्यों नहीं रखते ? इस शरीर पर मेरा अधिकार होने के कारण श्मशान लाकर लोग इसे मुझे अर्पण करते हैं, इसलिए इस पर मेरा अधिकार है ।’

चील-सियार-कुत्ते कहते हैं कि ‘जहां अग्नि-संस्कार नहीं होता, वहां यह शरीर हमको खाने को मिल जाता है, इसलिए यह शरीर हमारा है ।’

भगवान कहते हैं कि ‘यह शरीर किसी का नहीं है । मैंने इसे जीव को अपना उद्धार करने के लिए दिया है । यह शरीर मेरा है ।

इस तरह सभी इस शरीर पर अपना-अपना अधिकार बताते हैं ।

मनुष्य योनि ईश्वर की अमूल्य देन
यह शरीर एक साधारण-सी वस्तु है । प्रकृति से पैदा होता है और उसी में समा जाता है । जीव जब अनेक योनियों में भटकते-भटकते थक जाता है, तब भगवान दया करके उसे मनुष्य-योनि देते हैं । श्रीरामचरितमानस में लिखा है–

आकर चारि लच्छ चौरासी ।
जोनि भ्रमत यह जिव अविनासी ।।

जो पुरुष इस मानव शरीर को पाकर भी भगवान के चरणों का आश्रय नहीं लेता, वह अपने-आप को धोखा दे रहा है। इसलिए भगवान श्रीआदिशंकराचार्य अपने ‘भज गोविन्दम्’ स्तोत्र में मूढ़ मनुष्य को सम्बोधित करते हुए कहते हैं—

का ते कान्ता कस्ते पुत्र: संसारोऽयमतीव विचित्र: ।
कस्य त्वं क: कुत आयातस्तत्त्वं चिन्तय यदिदं भ्रान्त: ।।८।।

अर्थ—कौन तेरी स्त्री है ? कौन तेरा पुत्र है ? अरे यह संसार बड़ा विचित्र है । इसी तत्त्व का निरन्तर विचार कर कि तू कौन है ? किसका है और कहां से आया है ? भ्रान्त मत हो और गोविन्द को भज ।

यावद् वित्तोपार्जनसक्तस्तावन्निज परिवारो रक्त: ।
पश्चाज्जीवति जर्जरदेहे वार्तो कोऽपि न पृच्छति गेहे ।।५।।

अर्थ—जब तक तू धन कमाने में लगा हुआ है, तभी तक तेरा परिवार तुझसे प्रेम करता है । जब वृद्धावस्था से ग्रस्त होगा तब घर में तेरी कोई बात भी न पूछेगा । अत: मूढ़ । निरन्तर गोविन्द को ही भज ।

पुनरपि जननं पुनरपि मरणं पुनरपि जननीजठरे शयनम् ।
इह संसारे बहुदुस्तारे कृपयापारे पाहि मुरारे ।।२१।।

अर्थ—इस संसार में जीव को पुन:-पुन: जन्म, पुन:-पुन: मरण और बारम्बार माता के गर्भ में रहना पड़ता है । अत: मुरारे ! मैं आपकी शरण हूँ, इस दुस्तर अपार संसार से कृपया पार कीजिये, इस प्रकार अरे मूढ़ ! तू सदा गोविन्द का ही भजन कर ।

मनुष्य शरीर की सद्गति के उपाय
मूढ़ मनुष्य अपना जीवन सफल बनाने के लिए क्या करे ? इसके लिए भगवान श्रीआदिशंकराचार्य कहते हैं—

कस्त्वं कोऽहं कुत आयात: का मे जननी को मे तात: ।
इति परिभावय सर्वमसारं विश्वं त्यक्त्वा स्वप्न विचारम् ।।२३।।

अर्थ—स्वप्न के समान मिथ्या संसार की आशा छोड़कर ‘तू कौन है, मैं कौन हूँ, कहां से आया हूँ, मेरी माता कौन है और पिता कौन है ?—इस प्रकार सबको असार समझ और मूढ़ ! तू निरन्तर गोविन्द का ही भजन कर ।

त्वयि मयि चान्यत्रैको विष्णुर्व्यर्थै कुप्यसि मय्यसहिष्णु: ।
सर्वस्मिन्नपि पश्यात्मानं सर्वत्रोत्सृज भेदज्ञानम् ।।२४।।

अर्थ—तुझमें मुझमें और अन्य सभी में एक ही विष्णु है, इसलिए तू असहिष्णु होकर बेकार में ही मुझ पर क्रोध करता है, आत्मा को ही सबमें देख, सबमें भेदभाव की भावना को त्याग दे और सदैव गोविन्द का ही भजन कर ।

‘भज गोविन्दम् स्तोत्र’ के श्लोक सं २७ में भगवान श्रीआदिशंकराचार्य कहते हैं कि मनुष्य को—

गीता और विष्णुसहस्त्रनाम का नित्य पाठ करना चाहिए,
भगवान विष्णु के स्वरूप का नित्य ध्यान करना चाहिए ,
चित्त को संतों के संग में लगाना चाहिए,
दीन-दुखियों को धन दान करना चाहिए, और
मूढ़ मनुष्य ! तू नित्य गोविन्द का ही भजन कर ।*

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

11359

+

Visitors